Wednesday, November 4, 2009

दुःख का अधिकार

आज एक पाठ पढ़ा रही थी......"दुःख का अधिकार"......इसमे लेखक यशपाल जी ने कितनी आसानी से समाज में होने वाले भेदभाव को दर्शाया है.......एक गरीब बूढी औरत को अपने बेटे की मृत्यु के अगले ही दिन अपने पोते और बीमार बहु का पेट पालने के लिए खरबूजे बेचने आना पड़ता है......उसका दुःख उसकी आखों से छलका जा रहा है...लेकिन वो मजबूर है.....उस पर से समाज के लोग उसके साथ सहानुभूति रखने की बजाय उसे कोसते हैं...उसे पत्थर दिल माँ,लालची,धर्म भ्रष्ट करने वाली और भी न जाने क्या-क्या कहते हैं...........उस वक्त लेखक को एक दूसरी सभ्रांत महिला की याद आती है...जिसने अपने बेटे की मृत्यु का ग़म एक महीने से भी ज्यादा मनाया था.....वो बार-बार बेहोश हो जातीं थीं....और महीनों दुख मानते हुए बिस्तर से भी नही उठीं थीं....बाजार की बात तो दूर ही है.........

इस कहानी को पढ़कर मुझे भी कहीं न कहीं ये बात चुभी कि क्या धनवान को हर हक़ नही मिल गया है..?...एक गरीब अपना त्यौहार-खुशी सब काम करते हुए ही मनाता है...लेकिन उसे तो दुःख तक मनाने के लिए समय नही मिलता......कोई भी त्यौहार हो शाम तक काम करता है,तो बच्चों को उस दिन कुछ ढंग का खाना नसीब होता है.....अगर त्यौहार के दिन रोटी के साथ दाल-सब्जीभी मिल जाए तो वो भी उन्हें किसी मिठाई से कम खुशी नही देती....हम-आप जैसे लोग महीनों पहले से त्योहारों की तैयारियों में जुटे रहते हैं....कैसे परदे....कैसी चादरें.....गुलदान कहाँ रखेंगे...कपड़े कैसे हों...वगेरह वगेरह.....लेकिन इन्हे परदे,कपड़े की तो बात ही छोडिये....उस दिन का खाना घर पर पूरा हो यही चिंता सताती है.....तभी तो ये दूसरो के घरों में साज-सज्जा को अपने घर की सोचकर करते हैं........सुख की बात तो फिर भी समझें लेकिन इन्हे तो दुःख मनाने की भी फुर्सत नही है....अगर एक दिन काम न करें तो खाना नसीब न हो...इस पर या तो दुःख मना लें या बच्चों के पेट की फिक्र करें.....और पेट की फिक्र तो हमेशा ऊपर होती है....ऐसे में ये अपना दुःख छुपाकर काम में लग जाते हैं और हम इन्हे इस पर भी बातें सुनाने से बाज़ नही आते...

कभी हममें से शायद ही किसी ने सच्चे दिल से इनके बारे में सोचा हो....आप में से तो शायद कई ऐसे होंगे भी जो इनके लिए कुछ कर पा रहे हों....लेकिन मैं अब तक ऐसा कुछ नही कर पाई हूँ............आशा है कभी तो कुछ करुँगी....

समाज की एक ऐसा वर्ग जो हमारी जरूरतों में अपनी जरूरतों को तलाशता है....हम ही उसकी जरूरतों को न समझेंगे.......सोचा ना था....

Thursday, October 1, 2009

बचपन के दिन

आजकल हर माता-पिता यही चाहते हैं की उनके बच्चे हर क्षेत्र में आगे रहें और इसके लिए वे बच्चे के जन्म से ही प्रयासरत हो जाते हैं....माँ अपने बच्चे को वो सब करवाना चाहती है,जो वो नही कर पायी...और यही उसके पिता भी चाहते हैं...कोई भी अपने बच्चे को किसी दूसरे बच्चे से कम नही देखना चाहते....अगर पड़ोस का बच्चा किसी क्षेत्र में अव्वल है तो उनका बच्चा क्यूँ नही...?..अपनी इस प्रतियोगिता में लीन माता-पिता अपने बच्चों की खुशी और रूचि की सुध लेना ही भूल जाते हैं...उन्हें इससे कोई मतलब भी नही होता कि वे जो कुछ बच्चे से करवाना चाह रहे हैं...बच्चा वो करना चाहता भी है या नही......

आज स्थिति ऐसी है कि छोटे-छोटे बच्चे अपनी स्कूल की ढेर सारी पढ़ाई के साथ-साथ अन्य प्रतियोगिताओं में भी व्यस्त रहते हैं....जिसके कारण न तो उन्हें खेलने का खाली समय मिलता है और न ही कहानियों की किताबें पढने का....मेरी पहचान का ही एक बच्चा,जो अभी कक्षा-३ में है....पाँच ट्यूशन जाता है...उसके अलावा वो स्वीमिंग की क्लास भी जाता है.... ऐसे में बच्चों का बचपन कहाँ जा रहा है?...ये सवाल भी हम ही पूछते हैं..बच्चे भी ऐसे वातावरण में रहकर अपनी मासूमियत भूल रहे हैं..क्यूंकि उनसे इतनी समझदारी की उम्मीद की जाती है...कि वहाँ मासूमियत के लिए कोई जगह नही रहती....कुछ दिनों पहले ही मैंने टी-वी पर किसी अवार्ड शो में एक बाल कलाकार की स्पीच सुनी...कहीं से भी ऐसा नही लग रहा था की वो कोई बच्ची है....हमने कभी उस उम्र में ऐसी समझदारी की बातें नही की...

बिना बचपन की मासूमियत और शरारत के बच्चा.......एक अजीब सा अहसास है..माँ-बाप कभी अपने ही बच्चे से उसका बचपन छीनेगे...सोचा ना था....

Thursday, August 27, 2009

कोई मिस तो नही कर रहा...

आज सुबह ही एक मिस कॉल आया...पिछले कई दिनों से इन मिस कॉल से परेशान हूँ.....वैसे मैंने पेपर में कुछ दिनों पहले ही पढ़ा था कि एक सर्वे के अनुसार भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ लोग एक-दूसरे को मिस कॉल देते हैं....अन्य किसी भी देश में लोग मिस कॉल नही करते......वैसे मैंने कई लोगों से सुना है कि कई दोस्तों की भी मिस कॉल की भाषा होती है...जिससे वे आपस में हाँ-न आसानी से समझ लेते हैं...बिना पैसे लगाये...शायद ये अच्छा भी हो...यहाँ तक तो बात फ़िर भी ठीक है,लेकिन कई बार लोग अपना पैसा बिल्कुल भी खर्च नही करना चाहते और हर वक्त मिस कॉल ही करते हैं....यहाँ एक चुटकुला याद आ रहा है..."एक कंजूस के घर आग लग गई.....और उसने अपना पैसा बचाने के लिए फायर ब्रिगेड वालों को भी मिस कॉल किया...लोगों के पूछने पर उसने कहा कि जब फायर ब्रिगेड वाले कॉल करेंगे तो उन्हें आग के बारे में भी बता दूँगा..."

जो भी हो भारत मिस कॉल के मामले में दुनिया में सबसे आगे होगा...सोचा ना था....

Tuesday, August 4, 2009

ये बंधन है कैसा....?

"रश्मि बेटा!बड़ी मौसी के घर भी राखी भेज दी है न...?
"नही माँ!तुम्हे याद नही है...भइया ने मुझे दो सालों से कभी कोई गिफ्ट ही नही भेजी...मैं ही कितने सालों राखी भेजती रहूँ ?...जब उन्हें गिफ्ट देना याद ही नही रहता..."
"रश्मि!ये कैसी बातें कर रही हो तुम...?हम राखी गिफ्ट के लिए नही बांधते...ये तो एक पवित्र बंधन है....गिफ्ट तो केवल शगुन होता है....वास्तव में तो ये एक रक्षा का वचन है.....जब द्रौपदी ने श्री कृष्ण की कलाई की चोट पर अपने आँचल का टुकडा बांधा था...तो उसने बदले में कुछ भी पाने की इच्छा नही की थी....वो तो उनका निस्वार्थ प्रेम था....फ़िर भी उसकी जरूरत के समय श्री कृष्ण ने उसकी मदद की..."
"लेकिन माँ....मैं उस जमाने की नही हूँ...."
"जानती हूँ....लेकिन भाई-बहन का प्यार तो उस जमाने से आज तक वही है..न...जब भी तुम्हे किसी चीज़ की जरूरत होती है...वो तुम्हे बिना मांगे ही तुम्हारे भाई लाकर देते है...तुम कभी भी परेशान हुई..तो उसे भी तुम्हारे भाइयों ने दूर किया...फ़िर भी तुम केवल गिफ्ट के बारे में सोचकर राखी बांधो..ये तो सही नही है न..."
"माँ!तो क्या मुझे उनसे कोई गिफ्ट नही लेनी चाहिए..."
"अरे पगली....मैंने ये तो नही कहा...भाई जो प्रेम से दे..उसे उतने ही प्रेम से लो...लेकिन कभी गिफ्ट के लिए अपने भाइयों से ये प्यारा बंधन न तोड़ना...समझीं...."
"समझी...माँ!अगर आज भी राखी भेजूगी तो समय पर मौसी को मिल जायेगी...मैं पहले ये काम करके आती हूँ....और हाँ..थैंक यू माँ..मुझे राखी का महत्त्व समझाने के लिए...."

जानती हूँ इस कहानी से कई बहनों को बुरा लग सकता है...लेकिन इसकी प्रेरणा भी एक बहन से ही मिली है.मैं राखी लेने के लिए गई थी..और अपने भाइयों के पसंद के हिसाब से राखियाँ निकालने में जुटी थी.....मम्मी से काफ़ी राय भी ले रही थी...तभी एक लड़की आई..और कुछ राखियाँ यूँही उठाकर मुझसे बोली..."इतनी मेहनत क्यूँ कर रही है...यार..मतलब तो गिफ्ट पाने से है..जो भी राखी बांधो,गिफ्ट तो मिलेगा ही..."
एक बार तो मुझे लगा कि मैं उसे अच्छा सा जवाब दे दूँ...लेकिन ऐसा करने से पहले ही मुझे विचार आया...कहीं न कहीं हम सभी के मन में ये बातें तो है न....उसने इसे यूँ ही बोल दिया..हम अपने भाइयों कि पसंद कि सारी चीजें करते हैं...लेकिन गिफ्ट कि चाह तो हमारे मन में होती ही है...

कोई बुरी सी लगने वाली बात हमारे भीतर भी जागने कि कोशिश कर रही है....क्या हम भी कभी गिफ्ट के लिए अपने भाइयों का प्यार भूल जायेंगे...नही...आज से ही हम सभी बहनों को ये प्रण लेना चाहिए कि "हम अपने भाइयों के लिए अपने अन्दर एक निस्वार्थ प्रेम जगाएँगी..."हम सभी कह सकती हैं कि हम अपने भाइयों से ऐसा ही प्रेम करती हैं...लेकिन एक बार ईमानदारी से सोचिये ये लालच तिल जितना ही सही.....हमारे अन्दर है...

एक बहन होकर भी कभी इस तरह की बातें लिखूंगी और बहनों का दिल दुखाउंगी....सोचा ना था....

Sunday, August 2, 2009

सच के साईड इफेक्ट्स

पिछले कुछ दिनों से न्यूज़ चैनल "सच का सामना"रियलिटी शो को बंद करवाने के लिए मचे बवाल के न्यूज़ से भरा रहा...आखिरकार इसे जारी रखने की मान्यता मिल ही गई.....सोचने की बात तो ये है कि क्या ये इतना बड़ा मुद्दा था...जिसे मंत्रालय में उठाया गया...?.....देखा जाए तो इससे भी कहीं अधिक गंभीर मुद्दों पर तो आज तक नजर भी नही डाली गई है...सूर्य ग्रहण के दिन विकलांग बच्चों को जमीन में गाड़ा गया....सरेआम एक महिला के साथ छेड़छाड़ हुई....और भी ऐसे कई मामले तात्कालिक थे..जिन पर विचार ज्यादा जरूरी थे....बजाय एक रियलिटी शो में पूछे जाने वाले बोल्ड सवालों पर टिप्पणी के.....

आज सभी के हांथों में रिमोट होता है....और लाखों चेनलों की भीड़ में हर एक अपने मन मुताबिक शो देखता है....हर व्यक्ति अपने पसंद के सीरियल देखता है उसपर कोई दबाव नही है कि उसे क्या देखना है और क्या नही...ये उसकी अपनी पसंद होती है.....हो सकता है जो शो किसी को रत्ती भर पसंद न हो वह किसी और का पसंदीदा शो हो.....हमने ऐसे भी कई शो देखें हैं जो जनता के कम सपोर्ट कि वजह से एक-दो हफ्तों में ही नौ दो ग्यारह हो गए.......तो क्यूँ न ये फ़ैसला भी जनता का ही हो....अगर अधिकाँश जनता इसके विरुद्ध होगी तो ये वैसे ही बंद हो जायेगा....

इस शो को बंद करने का मुद्दा उठाते हुए ये कहा गया था कि इससे भारतीय सभ्यता बिगड़ रही है.....उन सभी को क्या ये बात नही दिखाई दे रही कि जो प्रतियोगी आ रहे है और भारतीय सभ्यता के विरुद्ध पूछे गए सवालों का जवाब हाँ में दे रहे हैं....वे तो पहले ऐसा कोई शो नही देखे थे बिगड़ने के लिए....या देख कर भी बिगडे हो तो भी उस वक्त तो हमारे देश में ऐसे शो नही थे.....अगर किसी को बिगड़ना है तो उसे आप रोक नही सकते...कम से कम दबा कर तो नही.....प्यार से काम जरूर हो सकता है....

एक सवाल ये भी उठाया गया की लोग पैसों की वजह से सच बोलने आ रहे हैं.....तो इसमे बुरा क्या है..?कोई सच बोलना चाहता है...फ़िर भले ही लालच में ही क्यूँ न बोले...?...मेरा भी मानना है कि कई बार प्रश्न ऐसे होते है कि उनके जवाब से व्यक्ति का जीवन बरबाद हो सकता है...लेकिन ये तो प्रतियोगी के ऊपर होता है..उस पर कोई दबाव नही होता..वो जब चाहे खेल छोड़ सकता है....इस बात में आप और हम सवाल क्यूँ उठाएं जब कोई व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से कोई काम कर रहा है...

मेरा तो यही मानना है की समय के हिसाब से सभी को बदलना चाहिए...कोई भी सभ्यता इतनी कमजोर नही होती की उसे इतनी आसानी से बिगड़ना सम्भव हो...समलैंगिकता को भी मान्यता मिलने पर इसी तरह का बवाल उठा....उन्हें मान्यता हाल ही में मिली है...लेकिन वे तो बरसों से ऐसे ही जी रहे हैं...मान लीजिये की फ़िर से समलैंगिगता को गैर कानूनी करार दे भी दिया जाए तो क्या परिस्थिति सुधर जायेगी...?....ऐसा कुछ नही होगा....तो क्या ये सही नही है की जो जैसे जीना चाहता है उसे वैसे ही जीने दिया जाए...?समाज बदल रहा है..क्यूंकि लोग बदल रहे हैं....आज तो हमारी कई मान्यताएं भी बदलने लगीं हैं....इसमे बुराई भी क्या है?......जीवन में बदलाव जरूरी है.....ऐसा तो हर बार नही हो सकता न की जो आपको पसंद न हो उसे दुनिया भी पसंद न करे....कई बार तो ये विरोध आपको अपने घर में भी मिल सकता है.....इसलिए सच्चाई से साक्षात्कार करें....

राजा हरिश्चंद्र के इस भारत में सच बोलने पर इतने सवाल उठेंगे......सोचा ना था....

Thursday, July 16, 2009

लड़कों के साथ भेदभाव

कल पार्क में बैठी थी की तभी दो महिलाओं में बच्चों की लडाई को लेकर बहस छिड़ गई....एक महिला लड़कियों की माँ थीं और वो दूसरी के लड़के की शिकायत कर रहीं थीं...बाद में पता चला की गलती लड़कियों की ही थी...और उनकी माँ को चुप होना पड़ा...ये बातें मुझे कहीं न कहीं ये बात सोचने पर मजबूर करीं...हम हमेशा लड़कियों को प्रोटेक्ट करने के लिए लड़कों को ही बुरा-भला कहते हैं...ये बातें पहले के जमाने के हिसाब से सहीं भी थीं,लेकिन आज जब लडकियां भी लड़कों की बराबरी कर रहीं हैं...तो उन्होंने हर क्षेत्र में उनकी बराबरी करली है....अब हर समय लड़के ही ग़लत न होकर लडकियां भी ग़लत हो सकतीं हैं...वो ज़माना करीब-करीब जा ही चुका है,जब लड़कियों को लड़कों की गलतियों के लिए लड़कियों को सजा भोगनी पड़तीं थीं...अब कई बार लड़कियों की गलतियों की सजा लड़कों को भी भुगतनी पड़ जाती है....

लेकिन हम भी क्या करें ? लड़कियों पर दया दृष्टि रखने की आदत सी पड़ गई है.....कभी भी किसी मॉल में..या किसी भी ऐसी जगह जाओ जहाँ चेकिंग होती है..मैंने हमेशा लड़कियों की चेकिंग में ढील देते देखा है...डिटेक्टर से निकलने के बाद भी लड़कों की और चेकिंग होती है..लेकिन लड़कियों की नही...उनके बैग और पर्स भी सरसरी निगाहों से ही चेक किए जाते हैं....

कभी किसी लड़की की गाड़ी ख़राब हो तो कई मददगार आ जाते हैं...लेकिन लड़कों की ख़राब गाड़ी को देखकर कोई भूला-भटका ही मदद के लिए पहुँचता है...हमारे सामने कई ऐसे केस भी हैं जिसमे किसी लड़की ने लड़के का झूठा फायदा उठाया....हमारे देश में महिलाओं कि सुरक्षा के लिए बने कानूनों का भी कई बार ग़लत फायदा महिलाओं के द्वारा उठाया गया है....इन बातों का असर सभी महिला जाति पर पड़ता है...

मैं भी एक लड़की हूँ...मुझे लड़कियों से कोई दुश्मनी नही है...मुझे पता है की लडकियां हमेशा ग़लत नही है...लेकिन वो ही सही है ऐसा भी तो नही है न....मेरा यही कहना है..कि जिस वक्त जो सही हो उसका पक्ष लो...कोई भी निर्णय लेने से पहले दोनों पक्षों को समान मानो...चाहे वहाँ लड़का हो या लड़की...एक लड़की होते हुए भी कई स्थानों में पुरुषों के साथ होते भेदभाव के ख़िलाफ़ मैं कभी लिखूंगी.....सोचा ना था....

Sunday, June 28, 2009

टीम को हमारा साथ

२०-२० की हार के बादकाफ़ी दिनों के अंतराल में फ़िर से टीम इंडिया के खाते में एक नई जीत दर्ज हो गई,जिससे कुछ दिनों पहले तक उनकी घोर निंदा करने वाले भी फिर से उनकी तारीफों के पुल बंधने में लग गए हैं.....जिन्हें उन्होंने ही कुछ दिनों पहले २०-२० की हार के बाद गिराया था।

ऐसे में सोचने वाली बात ये है की क्या ऐसी तारीफों से खुश हुआ जाए या ऐसी निंदाओं से परेशान?जब कोई खिलाडी अच्छा प्रदर्शन करता है तो अगले दिन उसकी तारीफों से उसे सर्वोपरी करार दिया जाता है और अगले दिन यदि वो ही गेंदबाजी या बल्लेबाजी में चुक जाए तो उसे पहले दिन की गई उसकी तारीफ़ से भी ज्यादा बुराई उसे सुननी पड़ती है.हम ये क्यूँ नही समझते की वो भी इंसान ही हैं?बिना आराम के वो कई दिनों से खेलते रहते हैं,यहाँ तक की कई खिलाडी चोटिल भी होते हैं.

जब भी कभी हार का सामना करना पड़ता है,तब हमारी टीम को हमारे सहयोग की जरूरत ज्यादा होती है....और यही ऐसा समय होता है जब हम उन्हें बिल्कुल सहयोग नही करते.जीत में तो हर कोई साथ होता है सही प्रशंसक या फैन तो वही है,जो हार या जीत दोनों स्थिति में साथ दे।

जब २०-२० में टीम की हार हुई थी,तब मैंने एक न्यूज़ चैनल में ही देखा था....उन्होंने इस समाचार के लिए शीर्षक दिया था,"कट गई नाक".क्या ये सही है हमें यही सोचना है।

हमारी टीम को हमारे सपोर्ट की हमेशा जरूरत है,वैसे मुझे क्रिकेट देखने का उतना शौक नही है,लेकिन फिर भी मैं कभी उस बारे में लिखूंगी.....सोचा ना था....

Saturday, June 6, 2009

बारिश:दो नजरिये

कल शाम बारिश की पहली फुहार पड़ी...हवा के साथ ही मन भी शीतल हो गया.सभी अब गर्मी की तपिश से आज़ादी पाने के बारे में सोचने लगे.अब चारों ओर हरियाली दिखेगी.तेज़ बरसती बारिश से जुडा कोई न कोई किस्सा तो सभी के पास हैं,जो अब फिर से चाय-पकोडों के बीच सुनाये जायेंगे.माँ को फिर से बरसात देखकर अपने छाता भूल कर गए बच्चे की चिंता सताएगी.हर शाम घर में न सूखे हुए कपडों की भीड़ देखने मिलेगी.....हाँ भई, कहीं-कहीं बत्ती की आँख-मिचौली भी होगी.अब फ़िर से याद आएगा बारिश में आँगन में कपड़े उठाते हुए गलती से भीग कर जानबूझ कर भीगने का मौका पाना....सड़क पर बहते हुए पानी पर कागज़ की नाव बना कर छोड़ना....मेढकों का शोर और नागराज के दर्शन के लिए भी तैयार रहना होगा...धूल और पसीने से आज़ादी मिलेगी.....सावन के झूले,राखी का त्यौहार...मतलब भैया से मिलने मिलेगा.....भगवान्!ये बारिश का मौसम जल्दी क्यूँ नही आता?


कुछ चेहरों पर खुशियाँ तो कुछ पर ग़म भी है.घर के छप्पर की मरम्मत जल्दी करानी होगी....फ़िर से घर के सामान पानी से बचाने के लिए बर्तन लगाने होंगे...अब उल्टे-सीधे सोना होगा....किसी के सर पर पानी टपकेगा तो किसी के पैर पर....रातों की नींद अब छप्पर पर एक बूँद पानी पड़ते ही उड़ जायेगी.....जब-जब धूप निकलेगी सामान को सुखाने की जद्दोजहद शुरु हो जायेगी....निर्दयी बारिश इसे फिर से भिगाने की पूरी कोशिश करेगी....पानी के नल के पास की नाली नल के गड्ढे से मिल कर पीने के पानी की परेशानी बढाएगी......आए दिन घर पर सांप-बिच्छु से सामना करना पड़ेगा.....रोज़ का काम करने के लिए न जाने कितनी बार भीगना होगा और डॉक्टर की जेब भरेगी.....भीगी लकडियों से चूल्हा जलाना पड़ेगा....भगवान्!ये बारिश का मौसम इतनी जल्दी क्यूँ आता है?

ये बारिश हर एक के लिए अलग अहसास लेकर आती है....ऐसे और भी कई अहसास हैं जिनके बारे में....सोचा ना था....

Thursday, June 4, 2009

याददाश्त बढ़ाने के लिए

आज तक हम सभी ने याददाश्त बढ़ाने के कई नुस्खे सुने हैं...जैसे याद करके दोहराना,लिख कर याद करना...वगेरह,वगेरह....लेकिन मैंने याददाश्त बढ़ाने का एक नया तरीका खोजा है....सीरियल्स;ये सभी सीरियल्स का मजाक उडाने वालों के लिए ख़ास है,क्यूंकि हर चीज से कोई न कोई फायदा तो होता ही है...चाहे वो सीरियल्स ही क्यूँ न हों।

आज कल तो चेनलों की संख्या बड़ी मात्र में बढ़ रही है...याददाश्त बढ़ाने का आधा काम तो इनका नम्बर याद रख कर ही हो जाता है;रहा-सहा काम पूरा करने के लिए सीरियल्स काम में लाये जा सकते हैं,क्यूंकि चेनल्स की संख्या से भी ज्यादा संख्या सीरियलों की है....अगर सभी सीरियल्स के चैनल्स और टाइम ही याद रख सकें.....तो ही आपकी याददास्त की चर्चा की जा सकती है.....अगर इतना न भी हो सके तो इसे छोटे पैमाने पर अपने पसंदीदा सीरियल का चैनल,चैनल नंबर,टाइम याद रख कर शुरुवात कर सकते हैं।

बड़े पैमाने पर सारे केरेक्टर का नाम,उनके आपसी रिश्ते,किसकी कितनी बार शादी हुई,कौन कितनी बार घर छोड़ कर गया,कौन सा केरेक्टर का चेहरा बदलता रहता है,वगेरह...वगेरह...याद रख सकते है.आख़िर सीरियलों की बुराई करने वाले भी तो यही मुद्दे चुनते हैं न?.....ये बात जितनी मज़ाक में ली जा सकती है उतनी ही गंभीर भी हो सकती है....एक बार आजमाने में क्या हर्ज़ है?

वैसे सीरियलों का एक और फायदा भी है...इसके कारण आप को घर का समान व्यवस्थित भी मिलता है,क्यूंकि कोई सीरियल बीच में छोड़ कर जाना न पड़े इसलिए कोई भी चीज किस जगह में रखी है इसकी जानकारी भी तो रखनी पड़ती है,ऐसे फायदे कितनों को होते हैं ये तो पता नही....लेकिन याददाश्त बढ़ाने में सीरियल्स से जरूर मदद मिलेगी.

कभी सीरियल्स के बारे में ऐसा कुछ लिखूंगी.....सोचा ना था....

क्या जरूरी है?

कल एक आंटीजी से मिली....वो अपनी बीती हुई जिंदगी की बातें कर रहीं थी,आख़िर में उन्होंने कहा कि"वो वक्त कितना अच्छा था,किसी कि राह देखने कि जरूरत नही होती थी....अपने मन से सारे काम करो,किसी के सहारे कि जरूरत नही होती थी....आज तो एक गिलास पानी के लिए भी किसी को बोलना पड़ता है...सच है जब तक हाँथ-पैर सलामत रहें....तब तक ही जीवन अच्छा रहता है".उनकी बातों ने मुझे भी सोचने पर मजबूर किया कि जब तक हमारे के पास कोई चीज होती है;तब तक हममें उसका मोल नही पता होता.....उस वक्त हम किसी और ही चीज कि तलाश में होते हैं.....जब हम अपने पास मौजूद चीज को भी खो देते हैं...तभी हमें उसका मोल पता चलता है।

हर बच्चा क्या चाहता है?....बड़ा होना,ताकि उसे वो सब करने मिले जो उसके बड़े करते हैं,उसे स्कूल से आज़ादी मिल जाए,इसी तरह कि और भी कई बातें......लेकिन वहीँ एक बड़ा व्यक्ति जो ८-१० घंटे ऑफिस में काम करता है...अपना बचपन वापस पाना चाहता है;ताकि वो अपने बचपन के मज़े ले सके,अपने दोस्तों के साथ खेल सके,घूमफिर सके,अपनी स्कूल लाइफ के मज़े ले सके,वगेरह...वगेरह.लेकिन अफ़सोस ये संभव नही है.......बचपन जब तक साथ था तब तक बड़े होने कि सोचे....बड़े होकर वापस बचपन पाने की.........

ये भी सोचा जा सकता है की बच्चों को बचपन का मज़ा लेना है....ये बात उनकी समझ में नही भी आई,लेकिन बड़ों को तो पता है की,"जान है तो जहाँ है".....फ़िर भी अपने शरीर कि चिंता किए बिना हम रात-दिन काम करते है.....कुछ के लिए ये मजबूरी भी है;लेकिन कुछ का शौक.आज का कमाया पैसा कल काम तभी आएगा जब आप उसे काम में लाने लायक रहें.आज कि ग़लत दिनचर्या कल बिमारियों में बदलती है और आप आज जो कम खा कर पैसे बचाते है,आप उससे कल कुछ अच्छा खाने लायक होंगे इस बात कि क्या उम्मीद है?

कई ऐसे लोग भी हैं जो बिल्कुल भी व्यायाम नही करते....उनके मुताबिक उनका सारे दिन का काम ही उनके लिए व्यायाम है;जबकि ये ग़लत है.......क्यूंकि हर एक को व्यायाम कि जरूरत है.इससे ही आपका शरीर स्वस्थ रहेगा और आपका जीवन भी.मेरी पहचान कि एक आंटी हैं.....वो ख़ुद सर्विस किया करतीं थी,अब उनके बेटे-बहु काम करते हैं.....उनके पास बहुत पैसा है ,लेकिन साथ में कई बीमारियाँ भी......जिसके कारण उन्हें काफी परहेज रखना जरूरी है.वैसे वो अक्सर अपने परहेज को तोड़ती रहतीं हैं.....सबसे छुपा कर;वैसे कई बार ये बात मैंने उनको कही है कि इससे उन्हें ही नुकसान होगा।

मेरा इन सभी बातों को लिखने का केवल यही एक कारण है कि अपने आने वाले कल कि खुशी के लिए आज से ही कोशिश करना सही है,लेकिन इसके साथ ही आज मिलने वाली छोटी-छोटी खुशी का मजा लेना और साथ ही अपने शरीर का ध्यान रखना भी नही भूलना चाहिए.कभी मैं इस तरह की बड़ी-बड़ी बातें करुँगी...सोचा ना था....

Friday, May 29, 2009

रेमेसिस-द्वितीय:मिस्र का एक महान फेराह

मिस्र के बारे में जब भी बात हो तो......फ़राह और पिरामिड की बातें भी होती ही हैं.फेराहों में एक नाम हमेशा याद किया जाता है.....रेमेसिस-द्वितीय का,जिसने सभी फेराहों से ज्यादा निर्माण कार्य करवाया.....और एक नई मूर्ति प्रथा की शुरुवात भी की.रेमेसिस द्वितीय का जन्म १३०३ में हुआ,उसने अपने पिता के नेतृत्व में फेराह बनने का सफर शुरू किया....वह राज काज देखता था......योद्धाओं से मिलता था...उनका नेतृत्व करता था,उसकी उम्र तब केवल १४ साल थी.इस समय में मिस्र में कई बदलाव भी आए,जैसे.........मंदिरों का निर्माण ज्यादा होने लगा था,इसके द्वारा न सिर्फ़ देवतों को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती थी बल्कि लोगों को भी खुश रखा जाता था.....इसके साथ ही मंदिरों में कला का भी विकास हो रहा था...रंगीन चित्र बनने शुरू हो गए थे.इस बीच नील नदी के सुखने से आर्थिक तंगी का सामना तो कुछ समय के लिए ही करना पड़ा लेकिन बाहरी हमलावरों के द्वारा मिस्र के एक बड़े हिस्से पर कब्जा भी कर लिया गया.....जिसे बाद में मिस्रवासियों के आपसी सहयोग से हासिल कर लिया गया,लेकिन मिस्र के राजाओं का देवताओं की तरह किया जाने वाला सम्मान जरूर खो गया.

सेती की मृत्यु के बाद रेमेसिस द्वितीय राजा(फेराहो) बना ...इस समय वो २० साल का था.....फेराहो बनते ही रेमेसिस ने युद्ध के द्वारा मिस्र का विस्तार कर लिया और 4 साल में ही उसने काफ़ी संपत्ति बढ़ा ली.....वो एक अच्छा राजा कहलाया.रेमेसिस का एक ही लक्ष्य था.....केडास(सीरिया) पर विजय,जो की उससे पहले ४ फेराहो नही कर पाये थे.रेमेसिस ने इसके लिए रथ और हड्डी से बने हथियार साथ लिए लेकिन वो केडास के राजा के जाल में फंस गया.उसे जंगल में केडास के दो व्यक्ति मिले;जिन्हें सेना द्वारा बंदी बनाया गया था.....उन्होंने इसे केडास कि सेना के शहर से १२० कि.मी.दूर होने की ग़लत सुचना दी जिसके कारण रेमेसिस ने अपनी सेना को टुकडियों में बाँट दिया...शहर पहुँचते ही वह बुरी तरह फंस गया,विरोधी सेना के पास लोहे के हथियार थे....जब रेमेसिस हार रहा था तभी उसकी दूसरी सेना टुकडी आ गई,युद्ध फ़िर से शुरू हो गया लेकिन दिन की समाप्ति तक कोई नतीजा नही निकला।


दुसरे दिन युद्ध से पहले रेमेसिस के सामने समझौते कि बात कि गई,वो इसके लिए तैयार नही था..उसे डर था की वो वापस जाकर मिस्रवासियों को क्या जवाब देगा.....रेमेसिस ने वापस आ कर अपने अधूरे समझौते की बात जाहिर नही की.उसने शर्म से बचने के लिए मंदिरों पर चित्र खुदवाए....जिसमे उसे अकेले ही केडास कि पूरी सेना से भिड़ते हुए दिखाया गया।मिस्र में अब पिरामिडों का चलन बंद हो गया...ख़ुद को पत्थरों में बनवा लेना ही अमरता कि निशानी बन गया था...रेमेसिस ने भी पहाड़ को तराश कर अपने स्मारक का निर्माण करवाया,जो उसके शासन के २४ साल बाद बन कर तैयार हुआ.ये बहुत ही शानदार मन्दिर है और अब्बू सिब्बल के नाम से जाना जाता है.....वैसे तो रेमेसिस ने बहुत से मंदिरों और स्मारकों का निर्माण करवाया था,लेकिन अब्बू सिब्बल बहुत ही प्रसिद्ध है...इसके भीतरी हिस्से में उसकी ३०-३० फीट लम्बी प्रतिमा है....मन्दिर के गर्भगृह में भी उसकी प्रतिमा २ भगवान् कि मूर्तियों के साथ मौजूद है...सूर्य कि किरणें साल में २ बार ही वहाँ पहुँचती है।

रेमेसिस के विशाल निर्माण कार्य का प्रमाण उसकी प्रतिमाओं कि अधिकता है.उसने सबसे ज्यादा प्रचार भी किया....युद्घ के तुंरत बाद वो प्रचार के लिए मंदिरों में नक्काशियां करवाता था.रेमेसिस के सभी पत्नियों से ४० बेटे-४० बेटियाँ थीं.उसने तीन पीढियों तक राज किया(करीब ६७ साल)....वह ९०-९१ साल की उम्र तक जीवित रहा.उसकी मृत्यु के कुछ समय बाद उसकी ममी एक साधारण से मकबरे में पाई गई,जहाँ मकबरे से कीमती चीजों को चुराने के बाद ममी को रख दिया जाता था.

मिस्र के इन स्मारकों और रेमेसिस के बारे में जानकर मिस्र के इतिहास की जटिलता को समझने का मौका मिला,इसे ज्यों का त्यों आपके सामने रख पाऊंगी......सोचा था....

Wednesday, May 20, 2009

गिजा का पिरामिड

खुफु...2600B.C.में मिश्र का एक महान शासक,जो की अपने लोगों के बीच भगवान की तरह पूजा जाता था.उसका अपनी जनता पर न सिर्फ़ पूरा नियंत्रण था बल्कि लोग उसपर भरोसा भी करते थे.....खुफु बीस साल से भी ज्यादा समय तक दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान बना रहा,उसने अपने देश की समृद्धि के लिए कई कार्य किए.इसमे से ही एक कार्य था....गिजा के पिरामिड का निर्माण।

खुफु से पहले उसके पिता"स्नेफेरू"ने भी तीन पिरामिडों का निर्माण कराया था.....सीढीनुमा पिरामिड,सपाट पिरामिड;लेकिन इनमें कुछ त्रुटियाँ थीं जैसे कमजोर नीव,जिसके कारण ये बाद में तिरछे हो गए थे.खुफु इन गलतियों सुधारते हुए इनसे भी अच्छा पिरामिड बनाना चाहता था.....इसलिए उसने गिजा के पठार को चुना....यहाँ की पथरीली ज़मीन मजबूत बुनियाद और उत्तम गुणवत्ता वाले लाइम स्टोन की उपलब्धता के कारण चुनी गई।

इस पिरामिड निर्माण में बहुत पैसा लगने वाला था मिश्र नील नदी के द्वारा समृद्ध था,लेकिन ये तब भी संभव नही था.ये भी कहा जाता है कि इसलिए खुफु ने इसे गुलामों से बनवाया...लेकिन विभिन्न खोजों के द्वारा पता चल चुका है कि निर्माण कार्य मिस्रवासियों के द्वारा ही हुआ था.

इसके लिए खुफु ने नील नदी कि बाढ़ का उपयोग किया.बाढ़ के 3-4 महीनों में जब किसानों के पास रोजगार नही होता था,तब उन्हें निर्माणकार्य में लगा कर रोजगार प्रदान किया जाता था.इस निर्माण कार्य में करीब 1,00,000
व्यक्ति कार्य में लगे थे.पिरामिड से कुछ मील दूर शहर बसाया गया था,ताकि मजदूर निर्माण कार्य पूरा करने तक वहाँ रह सकें.....यहाँ उन्हें अस्पताल,स्कूल,जैसी सुविधाओं के साथ -साथ राजा द्वारा भोजन और महिलाओं के लिए रोजगार भी उपलब्ध कराया गया था.राजा जो ख़ुद खाते थे वही उन्हें देते थे.


इस
पिरामिड को माट(सूर्य के देवता जिनके कारण सूर्य उदय और अस्त होता है,ऐसी मान्यता है)के नियमानुसार बनाया गया.उन्हें पूर्व और पश्चिमी दिवार पर बनाया जाता था और ध्रुव तारे से भी सम्बन्ध जोड़कर निर्माणकार्य किया गया.स्क्वायर लेवल के द्वारा पत्थरों को समतल रखा गया.पिरामिड को लाइम स्टोन से ढंककर प्लेन किया गया,जो कि सूर्य कि किरणें पड़ने से चांदी की तरह दिखती थी.निर्माण कार्य के लिए नील नदी के द्वारा ही सामान उपलब्ध कराया जाता था.भारी पत्थरों को निर्माण स्थल तक पहुँचने के लिए रैंप और लकडी के प्रयोग किया जाता था.इन बातों की पुष्टि मजदूरों के कंकालों की जांच से पता चलीं हैं,क्यूंकि उनके कंकाल में हड्डियां मुडी हुई और कमर झुकी हुई पाई गई,साथ ही मजदूरों और उनके परिवार की औसत आयु २२ वर्ष थी जबकि राजपरिवार की औसत आयु ५५ वर्ष।

खुफु की इच्छा थी,कि पिरामिड का निर्माण उसकी मृत्यु से पहले ही हो जाए...पिरामिड बनने में 20साल लगे,उसकी ऊंचाई तब 146.6 मी.थी,जो की तब तक बने पिरामिडों में सबसे ज्यादा थी.....पिरामिड निर्माण के कुछ दिनों के बाद खुफु की मृत्यु हो गई.खुफु के बाद भी कई पिरामिड बनाये गए,लेकिन फिर भी उसके द्वारा बनवाया गया गिजा का पिरामिड ,जिसे SUPHIS भी कहा जाता है और जिसकी ऊंचाई अब 137 मी.है,अब भी खुफु की कहानी बयान करता है।

विश्व के सात अजूबों में से एक मिश्र के पिरामिडों के निर्माण की कहानी इतनी रोचक होगी...सोचा ना था....

Monday, May 18, 2009

ज्ञान की संकरी गलियों में लेखक से साक्षात्कार

कल शाम "लैंडमार्क"गई,वहाँ 'जेफ्फ्री आर्चर' आने वाले थे.......शायद आप में से कई लोग जानते ही होंगे कि,इनकी बुक यु के बेस्ट सेलर चार्ट में दो महीनो तक नंबर वन पोजीशन में रही.वैसे भैया और मैं जल्दी पहुँच गए थे.....लेकिन वहाँ कि सभी कुर्सियां भर गई थीं.....कुछ लोग बैठे थे और साथ कि कुर्सियों को अपने पहचानवालों/रिश्तेदारों के लिए रोक रखे थे......कहीं भी देखो कुर्सी तो कोई भी खाली नही छोड़ना चाहता.खैर हमने सोचा कि जब आज तक हम यहाँ कभी बैठे ही नही,तो आज क्यूँ कुर्सी कि लड़ाई में पड़े?सो हम रोज कि तरह घूम कर किताबें देखने लगे......क्यूंकि आज लोगों के बैठने के लिए जगह बनानी थी,इसलिए बूक्सेल्फ़ को आपस में सटाकर रख दिया गया था,जिनके बीच से गुजरते हुए भैया ने कहा,"ज्ञान की संकरी गलियों से गुजर रहे हैं".

जेफ्फ्री जी का इंतजार हमने बुक पढ़कर किया.मैंने आज यहाँ 'तरकश' पढ़ी.इसमें जावेद अख्तर जी ने अपने शब्दों में अपने संघर्ष को बखूबी बयान किया है,वैसे मैं इसे पूरा तो नही पढ़ पायी,क्यूंकि जेफ्फ्रीजी आ गए....कुछ देर उन्होंने अपनी कहानियों के बारे में चर्चा की,अपने संघर्ष के बारे में भी बताया,लोगों के प्रश्नों का जवाब दिया और बाद में सबके लिए बुक में साइन भी किया।

आज तक मैंने कई किताबें पढ़ी हैं,लेकिन पहली बार किसी लेखक से मिलने का मौका मिला,बातें ज्यादा गंभीर तो नहीं थी......पर ज्ञानवर्धक थीं.वैसे आप कहीं भी कोई भी बात सुनें या पढ़ें वो कभी न कभी तो काम आती ही हैं।किसी लेखक से मिलने के लिए यूँ ज्ञान की संकरी गलियों में घूमना,इतना अच्छा लगेगा......सोचा था....

Saturday, May 16, 2009

युगंधर:रुक्मिणी की नज़र से

युगंधर में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह के बाद की घटनाओं को रुक्मिणी के माध्यम से बताया है.जिस तरह से एक पत्नी को हमेशा अपने पति पर नाज़ होता है और अगर वो अपने पति के बारे में बात करे तो वह उनकी हर उपलब्धि से प्रभावित रहती है....इसी तरह से रुक्मिणी के भावों को प्रकट किया गया है.लेकिन उन्होंने कई ऐसी घटनाओं का भी जिक्र किया जो उनके सामने नही घटी.....इस बात से पाठकों को हैरानी न हो इसलिए रुक्मिणी ने बताया है की ये बातें उन्हें उद्धवजी से पता चली,जो श्रीकृष्ण के साथ हमेशा रहते थे.

इस भाग में रुक्मिणी के द्वारा 'शिवाजी' ने उनकी द्वारिका आने,प्रदुमन् के जन्म और अपहरण,सम्यन्तक मणि की चोरी,श्रीकृष्ण के अन्य विवाह और रुक्मिणी का श्रीकृष्ण की अन्य पत्नियों का प्रेमपूर्वक स्वागत,श्रीकृष्ण के वंश,द्रौपदी स्वयंवर,स्वयंवर में पांडवों को जीवित पाने पर श्रीकृष्ण की खुशी,श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर जाकर पांडवों को न्याय दिलाने की कोशिश,खांडववन को इन्द्रप्रस्थ बनने की घटना,अर्जुन का द्वारिका आगमन,सुभद्रा का अर्जुन से लगाव,श्रीकृष्ण और उनके परिवार का इन्द्रप्रस्थ जाना,भीम का बलराम से मल्ल विद्या की शिक्षा लेना,अर्जुन का वनवास,बलराम का सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से तय करना,श्रीकृष्ण द्वारा सुभद्रा को अर्जुन से हरण करवाना.....इन सभी घटनाओ का जिक्र करवाया है.

इसके अलावा और भी कई रोचक घटनाओं का भी जिक्र किया गया है,जैसे सुदामा का द्वारिका आगमन और श्रीकृष्ण का उनका स्वागत करना,लक्ष्मणा के स्वयंवर में श्रीकृष्ण का मुकुट में से मोरपंख उतारना.....जिसने सभी को आश्चर्य में डाल दिया,रुक्मिणी को भी....इसका कारण केवल उद्धवजी को पता था......

"स्वयंवर-मंडप में कोई भी समझ नही सका कि उस मोरपंख के कारण भैया जलकुंड में प्रतिबिंबित,गरगर घूमते मत्स्य के नेत्र को भेद नही पा रहे थे.जलकुंड में दोलायमान मत्स्य-बिम्ब के साथ-साथ चंद्रभागा को छूकर आती शीतल वायुलहरों के कारण भैया के मुकुट में लगे मोरपंख का जलकुंड में पड़ा प्रतिबिम्ब भी दोलित होकर मत्स्यभेद में बाधा डाल रहा था.वह भैया की एकाग्रता भंग कर रहा था.अतः भैया ने इसे उतारकर रखा."

श्रीकृष्ण की पत्नी के तौर पर रुक्मिणी की ओर से श्रीकृष्ण की जीवन की घटनाओं को इतनी सहजता से पेश करने की कला भी किसी लेखक में होगी......सोचा था....

Thursday, May 14, 2009

युगंधर

पिछले कुछ दिनों से "युगंधर" पढ़ रही हूँ.पहले तो सोची कि पूरी किताब पढने के बाद ही उसके बारे में लिखूंगी;लेकिन फ़िर मुझे लगा कि क्यूंकि ये एक बहुत ही बेहतरीन किताब है और अगर मैं इसे पूरी पढने के बाद इसके बारे में लिखूंगी.....तो शायद इसके कई अच्छे हिस्सों को इसमे शामिल करने में चूक जाऊं...जो कि मैं नही चाहती,सो मैंने इसके बारे में भाग में लिखने का निर्णय किया.

युगंधर में शिवाजी सावंत ने पहले कुछ पन्नों में श्रीकृष्ण के बारे में लिखने से पहले आने वाली कठिनाइयों के बारे में लिखा है......जिसमे उन्होंने लिखा है,"ऐसा क्यूँ होता है कि श्रीकृष्ण अधिक से अधिक निकट भी लगता है और बात-बात में वह कहीं क्षितिज के उस पार भी जा बैठता है.मन को वह एक अनामिक,अनाकलनीय व्याकुलता क्यूँ दे जाता है?इसे खोजने कि धुन मुझ पर सवार हो गई................................तब पहली ही बात मुझे प्रतीत हुई कि श्रीकृष्ण का हम सबके अन्दर अंशतः वास होते हुए भी हमें उसका आभास नही होता है.इसका कारण है कि पिछले पाँच हजार सालों से वह एक से बढ़कर एक चमत्कारों में अंतर्बाह्य लिप्त हो गया है.अंधश्रद्धाओं के जाल में फंसा हुआ है."

उन्होंने इस उपन्यास को श्रीकृष्ण और उनके जीवन से सम्बंधित व्यक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है.श्रीकृष्ण के नाम के साथ ही हमारे मन में एक नाम उभरता है....'राधा'...पहले तो सावंत जी ने अपनी इस कृति में'राधा' को शामिल नही करने की सोची थी.इस विचार को उन्होंने इन पंक्तियों में लिखा है......"राधा का दामन थामकर काव्य क्षेत्र में रसिक कृष्ण ने सदियों तक असमर्थनीय उधम मचाया.वास्तव जीवन में नारी का आदर करनेवाला श्रीकृष्ण काव्यों में स्त्रिलोलुपता की ओर घसीटा गया.बहुत सोचने के बाद मैंने राधा को अपने उपन्यास में स्थान न देने का पक्का निर्णय किया."

लेकिन जब उन्होंने 'राधा' शब्द का अर्थ जाना तो उन्होंने इसे श्रीकृष्ण के द्वारा कहलवाया और राधाकृष्ण के संबंधों को सही रूप में प्रस्तुत किया,इन पंक्तियों के द्वारा..."...'रा' अर्थात प्राप्त होना,'धा' अर्थात मोक्ष....'राधा'अर्थात मोक्षप्राप्ति हेतु व्याकुल जीव......राधा मेरी पहली स्त्री गुरु थी.स्त्रीत्व के सभी रूप और भाव-विभावों कि मुझे दीक्षा देने वाली .....कभी मौन रहकर तो कभी बहुत कुछ मुखर होकर.कभी हलके से स्पर्श से तो कभी भावदर्शी दृष्टीक्षेप से यह दीक्षा दी थी उसने मुझे-वासनारहित अतुलनीय प्रेमयोग की..मेरी प्रिय सखी...पहली स्त्री-गुरु राधिका ही थी."

इसी तरह से कई जगह पर शब्दों से दृश्यों का बहुत ही सुंदर चित्रण मिलता है.गोकुल,वृन्दावन,मथुरा,द्वारिका सभी स्थान का ऐसा चित्रण है कि पढ़कर ही वहाँ के मनमोहक दृश्यों कि कल्पना की जा सकती है...इसी तरह गोपभोज,कृष्णसोपान की रचना,गुरु आश्रम,विभिन्न रत्नों और उपाधियों की प्राप्ति का भी बहुत ही अच्छा वर्णन है.....लेकिन श्रीकृष्ण की अर्जुन और रुक्मणी से भेंट को जिस तरह से दृश्यान्कित किया गया है...उसकी तुलना करना मुश्किल है.

यहाँ मैं अर्जुन और श्रीकृष्ण मिलाप का कुछ अंश लिख रही हूँ उससे ही ये अंदाजा लगाया जा सकता है...."हम एक दूसरे को पहचान गए जन्म-जन्मान्तर के लिए..वह मेरी ही ऊंचाई का था......उसका वर्ण भी मेरे ही जैसा था...हल्का नीला....तप्त लौह-छड़ पर जल छिड़कने से फैलने वाली नीली,जामुनी छटा जैसा...वह मत्स्यनेत्र और बाण के फल की भाँती सीधी नाकवाला था.मेरी ग्रीवा की भाँती ही सुंदर ग्रीवावाला-मेरी ही प्रतिकृति.क्षण भर के लिए मुझे लगा -कहीं मैं स्वयं को दर्पण में तो नही देख रहा हूँ?...अगले ही क्षण उसमें और मुझमें जो सूक्ष्म अन्तर था,वो मेरे ध्यान में आया.मेरे मुह में दाई ओर एक दुहरा दांत था.उसके मुह में ऐसा ही दुहरा दांत बायीं ओर था.मैं मुस्कुराया,वह भी वैसे ही मुस्कुराया."

पूरे उपन्यास में हर पंक्ति.....हर शब्द पाठक को बाँध कर रखने का जादू रखते .....और पाठक ख़ुद भी इस प्यारे बंधन में सहर्ष बंधना चाहताहै. कभी श्रीकृष्ण के जीवन से यूँ जुड़ने का मौका मिलेगा.....सोचा था.....

Thursday, May 7, 2009

अनजाने फायदे

कल ही मैंने ऑटो वालों की हड़ताल के बारे में लिखा था.आज स्थिति कुछ अलग है;वैसे हड़ताल तो ख़त्म नही हुई है;लेकिन इसके कुछ फायदे भी हुए हैं....जैसे की हर परिस्थिति के अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते ही हैं.इस हड़ताल की वजह से पुणे शहर में प्रदूषण स्तर में कमी आई है;क्यूंकि हड़ताल की वजह से ६५,००० ऑटो नही चल रहे हैं;साथ ही शहर में ट्रेफिक की स्थिति में भी सुधार हुआ है.पिछले दिनों की अपेक्षा इन हड़ताल के दिनों में चालान की दर में भी कमी आई है;इसका एक कारण है कि आजकल ट्रेफिक नियमों में थोडी रियायत कि गई है,ट्रिपल सीट पर आजकल चालान काटना बंद कर दिया गया है.....पता नही ये सही है या नही?पर इससे लोगों कि परेशानियाँ कम हो रहीं हैं.शहर के युवाओं में भी लोगों कि मदद करने का जूनून देखने को मिल रहा है;यहाँ लिफ्ट पंचायत बनाई गई है,जो लोगों कि सुविधा के लिए स्टेशन के सामने दुपहिया और चार पहिया वाहनों के साथ लिफ्ट देने के लिए मौजूद रहतें हैं.इसके दूसरी ओर कई ऑटो वाले अपने ऑटो चला रहे है;क्यूंकि पिछले पाँच दिनों से उनके ऑटो बेकार खडे थे.....लेकिन उसकी दूसरी ओर ये दुगुना किराया भी वसूल रहे हैं....चाहे जो भी हो किसी हड़ताल के इतने सकारात्मक फायदे भी हो सकते हैं.......सोचा था.....

Wednesday, May 6, 2009

एक रुपए की कीमत

आजकल की आम कहावत है कि,एक रुपए में क्या आता है?या एक रुपए से कुछ फर्क नही पड़ता....वगैरह,वगैरह ....लेकिन आज इसी एक रुपए ने अपनी ताकत और ज़रूरत ज़ाहिर कर दी है.पिछले कुछ दिनों से पुणे में ऑटो के किराए में एक रुपए कि कटौती करने के कारण ऑटोवालों ने हड़ताल कर दी है.ऑटो यूनियन के हेड भूख हड़ताल पर बैठे हैं ,और अप्रत्यक्ष रूप से कई और लोगों को भी न चाहते हुए भूख हड़ताल करने पर मजबूर कर रहे हैं.वैसे ये भूख हड़ताल करने वाले जानते हैं कि नही पता नही;लेकिन इनकी वजह से कई लोग परेशानी का सामना कर रहे हैं.......ये लोग केवल आम जनता ही नही बल्कि अपने यूनियन के ही लोगों को भी परेशान कर रहे हैं ,कई ऐसे ऑटो चालक भी हैं;जो रोज़ की कमाई पर घर चलाते हैं औरआज ये लोग एक रुपए के इस बखेडे की वजह से एक-एक रुपए को मोहताज हो गए हें.इस हड़ताल को ख़त्म करना चाहते हुए भी वे यूनियन के दबाव में इसमें शामिल होने को मजबूर हैं,इस एक रुपए के झगडे में कोई भी नही झुकना चाहता...........न ही ऑटो यूनियन ......न ही बड़े अधिकारी....केवल गरीब ऑटो वाले और आम जनता ही आपस में सुलह करना चाहती है.........कि कभी तुम्हारे पास मेरा एक रुपए............कभी मेरे पास तुम्हारा एक रुपए ......वैसे भी हमेशा से तो ऐसा होता ही आया है.........आज ये बात जब नियम बना दी गई तो ये हड़ताल का कारण बनी......शायद इसलिए क्यूंकि लोग नियमों को तोड़ने और बदलवाने में हमेशा आगे रहना चाहते हैं."हमेशा से अपने बड़ों से सुना था,कि एक रुपए से कोई अमीर-गरीब नही होता",लेकिन कभी एक रुपए के लिए ये सब भी होगा......सोचा था....

Thursday, April 16, 2009

पद्मश्री:कितना जरूरी

धोनी और भज्जी ने पद्मश्री नही लेने जा कर उसका ही नही बल्कि देश का अपमान किया.ये कहना है न्यूज़ चेनल और देश की जनता का ,लेकिन क्या उन्ही देश वालों और चेनल वालों का ये फ़र्ज़ नही बनता कि वो ऐसे लोगों को ढूंढ कर लायें जो इन पुरस्कार को पाने के लायक है लेकिन पुरस्कार घोषित करने वाली सरकार उनका पता लगाने में असमर्थ हो.मेरे विचार से धोनी और भज्जी का कसूर नही है......शायद उन्हें ये पुरस्कार नही चाहिए होंगे,लेकिन कई ऐसे लोग भी है जिन्हें इस पुरस्कार से आगे बढ़ने और देश के लिए बहुत कुछ करने कि प्रेरणा मिलेगी.....बस ऐसे ही लोगों को ये पुरस्कार दीजिये .हमारे देश में वैसे भी प्रतिभाओं कि कमी नही है....आज हम खेल के साथ-साथ और कई क्षेत्रों में भी दुनिया में भारत का नाम रौशन कर रहे हैं......तो क्यूँ न हम धोनी और भज्जी के इस व्यवहार को अन्यथा ना लेते हुए ,देश में मौजूद छुपी प्रतिभाओं को सामने लाने और प्रोत्साहित करने का प्रयास इन पुरस्कारों के द्वारा करें.इससे कई ऐसे सकारात्मक परिणाम आयंगे,जिनके बारे में कभी...सोचा ना था....

देश का हाल:एक ख़याल

पछले कुछ दिनों से समाचारों में यही देखने मिल रहा है कि सभी नेता किस तरह अपने विरोधियों के गलतियों को अपने वोटों में भुनाने में जुटे है.सभी ये गिन रहे है कि किस पार्टी के कार्यकाल में कितने आतंकवादी हमले हुए ?कितने आतंकवादी पकड़े गए? कितने छोडे गए ?किन्होने कौन सा कानून लागू किया और किन्होने कौन सा कानून हटाया?एक मुद्दा ये भी है कि कौन सी पार्टी जीत कर विदेशों में जमा भारतीय काला धन वापस लाएगी ?हर तरफ़ आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है.अधिकाँश नेताओं पर तो पहले से ही कोई न कोई केस चल ही रहा था और कई इस चुनाव के प्रचार में संविधान विरोधी भाषाओं का प्रयोग करके ये सम्मान प्राप्त कर चुके हैं.जब एक न्यूज़ चैनल में दो बहुत ही प्रतिष्ठित पार्टी के नेताओं से ये पूछा गया कि क्या वो जीतने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का साथ लेंगे ,जिसकी कोई अपराधिक पृष्ठभूमि हो ?तब ये दोनों नेता बात को बड़ी सफाई से टालते हुए ये कह कर निकल गए कि ,जब तक किसी का गुनाह सिद्ध न हो जाए तब तक वो बेगुनाह ही होता है.देखा जाए तो शुरुवात से एक दूसरे कि बात से असहमत ये दोनों इस एक बात पर सहमत दिखे.हमारे देश में ही महात्मा गाँधी,लाला लाजपत राय,बाल गंगाधर तिलक,सुभासचंद्र बोस,भगत सिंह,मंगल पांडे,जवाहर लाल नेहरू और इनकी ही तरह कई महान नेता हुए है ,जिन्होंने देश कि रक्षा और आज़ादी के लिए कुर्बानियां दी ,जेल गए,और भी कई दुःख भोग कर देश को आज़ाद कराया.देश का ये हाल होगा उन्होंने कभी...सोचा ना था....

Sunday, April 12, 2009

चरण पादुका और जूतम पैजारी

आदिकाल से ही जूते(फूटवेयर)और राजनीति का साथ बना हुआ है,जब श्री राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया गया था,तब भरत ने उनकी पादुका(फूट्वेअर) लाकर उसे सिहासन पर बिठाया और श्री राम के वापस आते तक उसी पादुका ने राज किया,बात पादुका रख कर राज करने की नही थी....बात थी ईमानदारी की;लेकिन आज इस कलयुग में ऐसा सोचना भी सम्भव नही.... आज तो कुर्सी के लिए भाई-बहन आपस में दुश्मन बन जातें हैं...तो किसी और की क्या कहें?नेताओं की बातों का ही भरोसा नही किया जा सकता, आज जो सबके सामने कहतें हैं ;कल उससे मुकर जातें है.ऐसे में क्या ये कभी भी भरत कि तरह की मिसाल दे सकतें हैं?......असंभव....जिस तरह से पादुका रख कर राम के प्रतिनिधि बन कर भरत ने उनके वापस आते तक राज चलाया;उसी तरह से नेताओं को भी केवल प्रतिनिधि बन कर राज चलाना है...यही बात उनकी समझ में नही आ रही है ,वो तो राज करना चाहते हैं.अब वो भरत तो हैं नहीं,इसीलिए शायद हमारा जूता(फूट्वेअर) देने का तरीका भी बदल गया...लेकिन उनकी हिम्मत तो देखिये की वो उसे अब भी स्वीकार नहीं कर रहें हैं,बल्कि फेंके हुए जूतों से कुछ इस तरह बच रहे हैं :जिम्मेदारियों से बचना तो कोई इनसे सीखे..वो दिन दूर नहीं जब ओलम्पिक में जूतों से निशाने लगाने या फेंके जूतों से बचने की प्रतियोगिताएं आयोजित होने लगें. और ये दृश्य हम अपने टीवी पर लाइव देखें :अपने देश के होनहार नेताओं को देखते हुए कुछ एक स्वर्ण पदक हमारे हाथ भी लग जाएँ तो क्या आश्चर्य. मगर हमारे यहाँ खेलों में होनेवाली राजनीति और राजनीती में होने वाले खेलों को देखते हुए कुछ भी सम्भव है। वोह दिन दूर नहीं जब प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों को मंदिरों की तरह जूते बाहर खोल कर आने को कहा जाए और जूते चोरों की मौज हो जाए।
हो तो बहुत कुछ सकता है, क्योंकि अक्सर हम वो देखते हैं जो सोचा ना था...।

Thursday, April 9, 2009

द्रोण की आत्मकथा

आज मैंने "द्रोण की आत्मकथा"किताब पूरी कर ली,लेखक मनु शर्मा ने इसे बहुत ही अच्छे ढंग से पेश किया है.अक्सर ऐसा होता है की हम किसी आदरणीय व्यक्ति के बारे में लिखते समय अच्छी तरह से अपनी बात को नही रख पाते और कई बार हम वास्तविकता से ही कोसों दूर भटकते रहते हैं;लेखक को भी ये मलाल रहता है की वो अपने विचार पाठकों तक ठीक से नही पहुँचा पाया,वहीं दूसरी ओर उसे आलोचना का भी डर होता है;लेकिन मनु शर्मा ने अपनी लेखनी पर अपने विचारों के अलावा किसी को भी हावी नही होने दिया.कई जगह पर,जहाँ उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों में आचार्य की मानसिक स्तिथियों को दर्शाया है,ऐसा लगता है जैसे ये आचार्य के द्वारा ही लिखे गए हों उन जगहों पर द्रोण भी किसी अन्य साधारण व्यक्ति की तरह ही व्यवहार करते हैं,जहाँ दुनिया के इतिहास में उनकी छवि एक महान आचार्य की है ,वहीं उन्हें इस तरह से पेश करना आसान नही है;यहाँ मनु शर्मा ने उन्ही के शब्दों में उनके जीवन को बहुत ही आसानी से पेश किया है.द्रोण के द्बारा एकलव्य के अंगूठे को गुरु दीक्षा के रूप में ले लेने की बात तो सभी को पता है;लेकिन मनुजी ने इसे भी बखूबी उपयोग किया है,उन्होंने इस घटना के बाद भी कई बार आचार्य को उनके इस पापकर्म से सामना कराया है ;अंत समय तक उन्हें ये बात सताती रही .इसी तरह द्रोपदी से उन्हें तब तक द्वेष नही था,जब तक उन्हें ये बात पता नही चली थी की;द्रोपदी को यज्ञ से उनके विनाश के लिए उत्पन किया गया है,और ये पता चलते ही वो कही न कहीं पांडवों से भी दूर होते चले गए.यही एक बहुत बड़ा कारण था कि द्रोन ने चीर हरण के समय कोई विरोध नही किया,उनकी इस मनस्थिति को मनुजी ने यूँ जाहिर किया है-"रह-रहकर मेरे मन में यह बात उठती थी कि मुझे इस अन्याय का विरोध करना चाहिए.स्त्री को सभा में लाकर अपमानित करना स्वयं में अन्याय है.पर मेरी नीचता और स्वार्थ ने मेरी जबान पकड़ ली थी.-----नीचता?हाँ,मेरी बहुत बड़ी नीचता थी कि पिता के प्रति अपनी प्रतिहिंसा मैंने पुत्री पर आरोपित कर दी थी.द्रोपदी का अपमान मुझे लगता था कि स्वयं द्रुपद का अपमान हों रहा है .मेरे मन में एक विचित्र प्रकार का संतोष था.इस नीचता कि भी कोई पराकाष्ठा हों सकती है!आज में प्रायश्चित स्वरुप ही इस घटना का उल्लेख कर रहा हूँ.-------और स्वार्थ?मेरी धमनियों में कौरवों का नमक प्रवाहित था.उन्ही कि कृपा से मैं भिक्षाटन करने वाला ब्राह्मण राजा हों गया था.इसी से मेरी विद्या,मेरा विवेक,और मेरा न्याय सचमुच मेरे अपने नही थे." इसी तरह इस किताब मैं और भी कई प्रसंगों को बहुत ही बेहतरीन ढंग से इस तरह से जाहिर किया गया है कि पात्र अपनी प्रतिष्ठा नही खोते,लेकिन उनकी मनस्थिति सामने आ जाती है.मैं लेखक की इस कला की प्रसंशा करती हूँ.वैसे इस किताब के बारे में लिखने लायक बहुत है लेकिन आज मैं इतने में ही संतोष करती हूँ.

Wednesday, April 8, 2009

सोच

जय हो गणेशजी महाराज की,कोई भी काम शुरु करने से पहले गणेशजी का आशीर्वाद ले लेना अच्छा होता है......चलो, ये काम तो हो गया अब आगे की बात करते हैं;जब भी अपको आईडी बनानी हो या ब्लॉग, सबसे ज्यादा टाइम लगता है ये सोचने में की आप नाम क्या रखें? मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ;मैंने काफ़ी सोचा लेकिन कोई अच्छा नाम ही नही सूझा; जो अच्छा लगा वो मिला नही और जो मिला वो पसंद नही आया.अक्सर ऐसा ही होता है जो सोचते हैं वो मिलता नही और जो नही सोचते वही मिलता है;इसीलिए मैंने भी सोचा की सोचने का कोई फायदा नही है(यहाँ विरोधाभास अलंकार है)और मैंने इसी स्थिति में ब्लॉग का नाम भी रख दिया....सोचा न था.....तो भई बात क्लियर हो गई?वैसे देखा जाए तो ये सोचने और मिलने में विरोधाभास हमेशा नही होता,ऐसा भी होता है कि सोची हुई चीज मिल भी जाती है;मैंने कहीं पढ़ा था(वैसे मुझे उस किताब का नाम याद है...पर मैं बताना नही चाहती क्यूंकि मेरा ज्ञान काम नही आ पायेगा फिर......)हाँ...मैंने पढ़ा था की अगर कोई भी व्यक्ति अपनी सोच को अपनी इच्छा के अनुसार बदलने में सफल हो तो वो अपनी मनचाही चीज को आसानी से पा सकता है...फिर वो चाहे एक मनचाहा ईमेल आईडी या जिंदगी में बड़ी सफलता;कोई भी चीज पाना उसके लिए मुश्किल नही....बस उसके मन में वही विचार आयें जिन्हें वो लाना चाहता हो......मेरे ख़्याल सेशाहरुख़ खान ने भी अपनी फ़िल्म में इस बात का समर्थन इस डाइलोग में किया था-'तुम जिस चीज को दिल से पाने की ख्वाहिश करते हो;पूरी कायनात तुम्हे उससे मिलाने की साजिश करती है(डाइलोग में शायद कुछ शब्द इधर-उधर हो गए हों पर भाव वही है)खैर... मेरा प्रयोग तो अभी जारी है...लेकिन आप लोगों को इस बारे मैं आगे भी बताती रहूंगी.