Sunday, November 14, 2010

दिल तो बच्चा ही सही...

बचपन...कितना अच्छा होता है..और उसकी बेफिक्री क्या होती है...ये बड़े होने के बाद ही पता चलता है...उस वक्त तो बड़े होने की बड़ी जल्दी होती है...लगता है..बड़े होकर ये करेंगे...वो करेंगे...लेकिन बड़े होकर पता चलता है...कि बड़ा होना क्या होता है...और तब बचपन की यादें....क्या ये ही हममें से अधिकांश लोगों की कहानी नहीं है...?

कभी हमने सोचा है..कि चलो भई...छोटे थे तो बड़े होने के बारे में सोचना तो कहीं न कहीं जायज भी था...क्यूंकि तब इतनी समझ कहाँ थी...लेकिन ये बड़े होकर बचपन को याद करना कहाँ तक जायज है...?....मैं ये नहीं कहना चाहती कि बचपन को भूल जाना बेहतर है..बल्कि मैं तो ये कहना चाहती हूँ की क्यूँ न हम अपने बचपन को फिर से जी लें....क्यूँ हम किसी की परवाह करें कि वो क्या सोचेगा हमें ऐसा करते देख....हमने कभी बचपन में तो ऐसा नहीं सोचा....कभी संकोच के लिए तो कोई जगह ही नहीं होती बचपन में...तो आज क्यूँ...?....अपनी कल्पना से हम सपनो को छू लिया करते थे...तो आज उस कल्पना-शक्ति की राह में हम यथार्थ को क्यूँ अपनी टांग अडाने दे है...जब हम बचपन में अपने दिल की सारी बातें यूँ कह दिया करते थे जैसे कोई कंठस्थ कविता सुना रहे हों..तो आज उसी दिल की बातों को कहना...एक अजनबी भाषा की कहानी पढने जितना मुश्किल क्यूँ है...?

लोग कहते हैं...बचपन के दिन वापस नहीं आते...शायद ये बात सही हो...पर मेरा मानना है कि बचपन के दिन न सही...बचपन का दिल ज़रूर वापस आ सकता है...क्यूंकि जब तक आपके दिल बच्चा है...आपकी ज़िन्दगी बचपन की तरह आसान है...क्यूंकि आपका बच्चा दिल आपको सारी परेशानियों और टेन्शन से दूर रखने का कोई न कोई उपाय सोच ही लेगा..... बच्चा बनने के लिए बाल-दिवस से बेहतर दिन तो कोई नहीं हो सकता...।

यूँ बचपन को हमेशा कायम रखने का तरीका पहले कभी....सोचा ना था....

Sunday, September 26, 2010

कला की गहराइयों में....

कला....ये शब्द मुझे इन दिनों आकर्षित कर रहा है...आखिर ये कला है क्या...?.....हर छोटे-बड़े काम को करना भी एक कला ही है...लेकिन जब हम इस शब्द की गहराई में जाते हैं,तो पाते हैं कि इस शब्द के साथ साधना और लगन जुड़े हुए हैं...किसी भी कला में माहिर होने के लिए ज़रूरी है...कि आप उसमे पूरी तरह से रम जाएँ...तभी वो कला भी आपमें रम जाएगी...किसी भी तरह की झिझक मन में न रहे...उस कला को अपने शरीर के अंग की तरह महसूस करें...और वो आपमें बिलकुल बस जाएगी।

मैंने अपने जीवन में कई कलाएं सीखीं....कुछ की ट्रेनिंग ली..और कुछ खुद के प्रयासों से....लेकिन जब मैंने "वाएस- ट्रेनिंग" लेनी शुरू की...तब मुझे पता चला कि कोई भी व्यक्ति कलाओं को सीख सकता है...लेकिन कलाओं को अपनाना बहुत कम व्यक्तियों के बस की बात है...किसी भी कला को सीखने से कहीं ज्यादा जरुरी होता है...उन्हें अपनाना। जब कोई व्यक्ति कलाओं को अपनाता है..तब कला भी उसे अपनाती है....और दुनिया देखती है...कला और कलाकार के मिलन से उपजे चमत्कारों को...।

कला का विस्तार एक अथाह समुद्र की तरह है....और कला हर व्यक्ति से यही चाहती है..कि वो उसकी गहराई में गोते लगाये...और वहां मौजूद बेशकीमती खजाने को तलाशें...ये खजाना इतना विशाल है कि ये लाखों-करोड़ों को संतुष्ट करने के बाद भी कभी ख़त्म नहीं होता..बल्कि दिनोंदिन इसमें बढ़ोतरी होती जाती है...कला की गहराई में ग़ोता लगाने वाले हमेशा नवाजे गए हैं....अब मेरा लक्ष्य भी कला की गहराई में गोते लगाकर कुछ मूंगे-मोती तलाशना है....

फिलहाल अपनी स्थिति के बारे में मैं ये कह सकती हूँ कि कला के समुद्र में ग़ोता लगाने के लिए मैं अपने विचारों के स्विमिंग-पूल में तैरने की ट्रेनिंग ले रही हूँ...और मेरी झिझक मुझे जकड़े हुए है..जिससे मेरा मन खुद ही बंदी हो जाता है...और निराशा उसे डुबाने की कोशिश करती है....लेकिन कभी-कभी विचार और मन का ऐसा मिलन होता है....कि मन..विचारों के साथ हो लेता है....

कला को इतनी अच्छी तरह से समझ पाऊँगी....सोचा ना था....

Sunday, August 15, 2010

दुआओं से देशभक्ति...दवा नहीं तो दुआ सही

आज स्वतंत्रता की ६३ वीं वर्षगांठ है.....हम सभी भारतियों के लिए ये एक ख़ुशी का मौका है.....आज मैं ये सोच रही थी कि मैंने अपने जीवन के इतने सालों में देश के लिए क्या किया...?....शायद कुछ नहीं...या अगर कुछ किया भी हो तो वो उंट के मुह में जीरे के बराबर...हम सभी (ये आप के ऊपर है कि आप इसमें शामिल होना चाहते हैं या नहीं) रहते तो देश में हैं लेकिन सोचते....सिर्फ अपने भले की है.....हमारी देश भक्ति २६ जनवरी और १५ अगस्त को ही नींद से जागती है....और ध्वजारोहण,भाषण,देशभक्ति गीत के बाद मिष्ठान खाकर वापस अगली तारीख तक सो जाती है.....देश तरक्की नहीं कर रहा....इस बात से सभी को परेशानी है...लेकिन उसे तरक्की की राह पर लाने का बीड़ा हम दूसरों के कन्धों पर ही डालना चाहते हैं....यहाँ का हर नेता भ्रष्टाचारी है...बेईमान है...इस देश का कुछ नहीं हो सकता....ये बात अलग-अलग तरह से मैंने कई मुह से सुनी है...जिनमे से कई मुह युवा थे तो कई वृद्ध..बच्चे भी ये बातें कहते दिखते हैं...ऐसा नहीं है कि ये बात पूरी तरह से गलत है....लेकिन गलत ये है कि जो ये बात कह रहे हैं उन्होंने देश के लिए क्या किया....?.....जब उन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया और न ही करना चाहते हैं...तो उन्हें ऐसी कोई भी बात कहने का कोई हक़ नहीं....जैसे अगर आपने मतदान नहीं किया तो आप मतदान करने वालों को गलत नेता चुनने के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते...क्यूंकि आप आप मतदान न करके उनसे कहीं ज्यादा दोषी हैं...

खैर...यहाँ मेरा मकसद देश के गुनाहगारों को खोजना नहीं है...मैं बस ये कहना चाहती हूँ...कि अपनी जिंदगी में देश के लिए कुछ तो करो...जो कर रहे हैं उइन्हे सलाम करके आप देश के लिए कुछ नहीं कर रहे...मुझे लगता है..हम सभी देश के लिए दवा नहीं तो कम से कम दुआ तो कर ही सकते हैं....हम भारतीय साल में कम से कम ५-६ बार तो भगवान् से प्रार्थना करते ही हैं...(ये मैंने नास्तिकों की बात की..वो ये अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं...)...और ज्यादा से ज्यादा दिन में ५-६ बार....क्या कभी भी आपने अपनी प्रार्थना में देश के लिए कुछ माँगा....?....सोचिये....?....नहीं...हमने हमेशा अपने और ज्यादा से ज्यादा अपनों के लिए प्रार्थना की...मैं ये कहना चाहती हूँ कि क्यूँ न आज से हम सभी एक आदत डालें कि हम अपनी प्रार्थनाओं में देश की प्रगति और तरक्की के लिए भी स्थान बनायेंगे....यकीं मानिये इससे भी काफी असर होगा....और एक दिन में देश के लिए कम से कम भी करोड़ों लोग प्रार्थना करेंगे....यही नहीं अगर आप किसी भी प्रसिद्ध मंदिर,मजार,गुरूद्वारे या चर्च जाएँ तो वहाँ भी देश के नाम से मन्नत मांगें...इसमें भी आपका और आपके अपनों का ही भला है.....अगर देश उन्नतशील होगा तो वहाँ की जनता भी तो तरक्की करेगी...

बस...आज से ये अच्छी आदत डाल लें...देश के लिए प्रत्यक्ष रूप से कुछ कर सकें तो बहुत ही अच्छी बात है....लेकिन जो देश के लिए कुछ न कर पाए तो कम से कम अपनी प्रार्थनाओं और दुआओं में देश की तरक्की की कामना तो कर ही सकता है...और ऐसा करके आप अपनी देशभक्ति को भी जागृत रख सकते हैं..बिना किसी तारीख का इंतज़ार किये....अपनी सीमित दुआओं को असीमितता की स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए आज से बेहतर कौन सा दिन हो सकता है....पहले मैंने भी अपने देश के लिए कोई प्रार्थनाएं नहीं की...हमेशा मन में एक टीस रहती थी कि मैं देश के लिए कुछ नहीं कर पा रही..फिर इस साल फतेहपुर सीकरी में धागा बाँधते हुए ही मुझे ये विचार आया....

देश के लिए दवा नहीं तो दुआ ही सही...पहले इस बारे में कभी...सोचा न था....



Monday, August 9, 2010

"कुछ" तो कुछ होता है...

१ महिना होने को आया और मैंने कुछ भी नहीं लिखा....ये कुछ आश्चर्य-सा है.....लेकिन करूँ भी तो क्या...?...कभी कुछ सूझता नहीं...और सूझता तो नेट पास नहीं.....वैसे इन दिनों अपनी "वॉईस-ओवर" ट्रेनिंग में थोड़ी व्यस्त-सी थी....समय तो मिलता है..पर विचार नहीं...अगर मैं कोई प्रोफेशनल लेखिका होती,तो शायद मेरे घर में खाने के लाले पड़ जाते.....लेकिन भगवान् शिव की कृपा से ऐसा है नहीं....मैं तो अब भी अपने प्रोफेशन की तलाश में हूँ...इन दिनों मैं यही सोचती रही कि लिखूं तो क्या॥?

आख़िरकार आज मैंने ठान लिया कि 'कुछ' तो लिखना ही है...अब इस 'कुछ' की तलाश करूँ....देशभर में बारिश हो रही है...बाढ़ आ गई है...बिहार में सुखा पड़ा है...हाँ...इस बारे में लिखा जा सकता है...पर दूसरों के घावों को कुरेदना अच्छा नहीं है...तो अब..?..........हाँ..."कॉमन वेल्थ गेम्स" की तैयारियों में जो धांधली चल रही है....ऑस्ट्रेलिया की कम्पनी को स्पोंसर जुगाड़ने के लिए कमीशन के रूप में मोटी रकम दी जा रही है...जबकि उन्होंने कोई काम ही नहीं किया...विषय तो अच्छा है,लेकिन अब तो इस पर कार्यवाही भी शुरू हो गई...मतलब हम अब भी वहीँ हैं....बिना विषय के....अब मैं क्या करूँ...?

१५ अगस्त आ रहा है....लेकिन हमारे लिए तो वही १४ और वही १५....बस टी.वी. पर परेड देख लेते हैं...अब इस पर क्या लिखें...?.....नयी फिल्मों के बारे में भी क्या लिखूं....?....उन्होंने इस लायक छोड़ा ही क्या है...?....सावन शुरू हो गया है....हर साल की तरह कांवरिये निकल पड़े हैं,शिव के धाम...कई ज्योतिर्लिंग हैं....पर हम तो अपने घर के पास के मंदिर को ही अपने लिए ज्योतिर्लिंग मान कर पूजा कर रहे हैं...

कौन बनेगा करोड़पति शुरू होने वाला है....ये तो कोई बेवकूफ ही बताएगा क्यूंकि ये तो सभी को पता है....रथयात्रा के बारे में कुछ लिख सकती थी...पर शायद उसे अगले साल ही यहाँ जगह मिले....क्यूंकि अभी कुछ दिनों पहले वो हो चुकी है....कल गेटवे ऑफ़ इंडिया के पास दो जहाजों की टक्कर हो गई और एक पलट गया...अब उसमे रखे पेट्रोलियम पदार्थ समुद्र के पानी में आ गए...जिससे मछलियाँ मर रही हैं...स्थानीय नगरपालिका ने मुंबईवासियों को मछलियाँ खाने से मना किया है...लेकिन इससे तो मछली बेचनेवालों का रोज़गार ठप्प हो जायेगा...इस बारे में तो मुझे इतना ही पता है...अब पूरी बात न बताओ..तो अच्छा नहीं है...तो...?....अब कुछ और सोचें...?

इतना सोचने पर भी जब वो "कुछ" नहीं मिला तो मैं क्या लिखूं...?...हे भगवान् अब आप ही "कुछ" सुझाओ....देखा आपने इस "कुछ" को खोजना कितना मुश्किल हो रहा है....आखिर ये "कुछ" भी तो "कुछ"है न...ऐसे ही सामने थोड़े आएगा....तलाश जारी है...

इस "कुछ" की तलाश में इतना कुछ लिख जायगा....सोचा ना था....

Thursday, June 10, 2010

मौन की बातें

जब अकेलापन सताता है...तब इंसान एक दोस्त की तलाश करता है...जिसके साथ अपने दिल की बातें बाँट सके...खुलकर हंस ले...जी भरकर रो ले...मेरे मामले में कुछ अलग हुआ..मुझे दोस्त तो मिला,लेकिन कोई हाड-मांस वाला नहीं...बल्कि एक मशीन...और उसकी आत्मा...इन्टरनेट ...जो मुझे हर जानकारी उपलब्ध कराता है...मेरे कई-कई दिन उससे नहीं मिलने पर भी वो कोई सवाल नहीं करता....नाराज़ नहीं होता....मैं उससे अपनी खुशियाँ और ग़म बाँट लेती हूँ ....भले ही वो मेरी ख़ुशी पर न हँसे और ग़मों पर अपना कोई कन्धा न दे सके...फिर भी उसकी दोस्ती में एक अजीब सा प्रेम है...अपनापन है...मैं जानती हूँ कि उसे मेरी कोई बात अच्छी न भी लगे तो वो कुछ नहीं कहेगा....मुँह पर भी नहीं और पीठ पीछे भी नहीं.....मैं भी उसके लिए अपनी ख़ुशी और ग़म के कुछ हिस्से रखती हूँ...जब ख़ुशी होती है तो ख़ुशी ग़म हो तो ग़म....उसे अपना हिस्सा लेना पड़ता है....वो भले ही न कहे फिर भी मुझे पता है....वो मेरी ख़ुशी के विचारों से खुश और दुखी विचारों से दुखी होता है..

कितनी अजीब होती है ये दोस्ती...वैसे व्यक्ति अपने दोस्तों के साथ खुश तो होता है...पर कभी-कभी समय भी बर्बाद करने लगता है...इस बात का पता चलते ही वो दोस्तों को बिलकुल भूलकर अपने लक्ष्य को तलाशने लगता है......और लक्ष्य की इसी राह में एक न एक दिन उसकी मुलाकात होती है....मौन से........ये मौन भी अच्छे व्यक्तित्व का धनी है...अक्सर अपने नाम के विपरीत मुखर होकर बहुत कुछ कह जाता है.....और व्यक्ति को सोच मे ड़ाल देता है...इसकी बातें अक्सर अंतर्मन से ही होती हैं...आपस में गहरी दोस्ती जो है...ये अक्सर मिलते नहीं,लेकिन जब भी मिलते हैं...काफी दिनों तक साथ रहते हैं...और अगर इनकी बातों पर गौर करो,तो बहुत काम की बातें करते हैं.....ये मौन ही भटकते मन को रास्ता दिखाता है....मन की उद्विग्नता को शांत करने वाला ये मौन जब टूटता है...तो मुँह से निकलने वाले हर शब्द जैसे हीरे से भी अनमोल हो जाते हैं....मन निर्मल और मष्तिष्क शांत....एक बार मौन से मुलाकात हो गई....तो वो हमेशा याद रखता है...और आवश्यकता पड़ने पर मुखर जिव्हा को अचानक अपना लेता है..........

मौन के इन्ही गुंणों से आजकल मुलाकात चल रही है......मैं इसे जाने नहीं देना चाहती......देखूं कितने दिन इसे मेरी मेहमाननवाजी पसंद आती है......मौन से बातें करने का अनुभव इतना प्यारा होगा.....सोचा ना था....

Thursday, April 22, 2010

हम सुधरेंगे,युग सुधरेगा

आजकल आई.पी.एल. विवाद ज़ोरों पर है...........जाने कितने ही लोग इन सब के पीछे हैं..........जो कुछ दिनों में सामने आ जायेंगे और कितने ऐसे हैं,जो सामने नहीं आयेंगे....अपनी ताकत के बल पर या यूँ कहें की अपने ऊँचे कनेक्शन की वजह से....

हम सभी अक्सर भ्रष्टाचार की बातें करते हैं....लेकिन अगर हम ध्यान दें तो कहीं न कहीं हम सभी छोटे या बड़े पैमाने पर इस भ्रष्टाचार में शामिल हैं...........जब भी हम किसी ऑटो वाले को ३ से ज्यादा सवारी बिठाने के लिए कहते हैं...या हम उसे कुछ ज्यादा पैसे लेकर ऐसा करने के लिए कहते हैं.....किसी ट्रेफिक पुलिस को १०० का नोट देकर बात को वहीँ रफा-दफा करते हैं.....इसमें जितना दोष ट्रैफिक पुलिस का है उतना ही हमारा भी.........बच्चों के एडमिशन के लिए डोनेशन देते हैं........कुछ लोग तो पैसे देकर परीक्षा के पहले प्रश्नपत्र खरीद लेते हैं या नक़ल करवाते हैं...यहाँ तक की कई बार पेपर चेकिंग पर भी पैसे देकर हेर-फेर किया जाता है......पैसे देकर पास करवाना,नौकरी हासिल करना...ये बातें जो कभी-कभी छोटी लगती है...वही मिलकर देश के भ्रष्टाचार को कई गुना बढ़ा देती है...........हम सभी सरकार को भ्रष्टाचार रोकने का कोई उपाय न करने की दुहाई देते हैं...और ऐसा किसी न किसी दिन होने की कल्पना करके चुप बैठ जाते हैं.....हम भूल जाते हैं कि ये ज़िन्दगी है..कोई फिल्म नहीं,जहां एक ईमानदार पुलिस वाला आकर देश के सभी भ्रष्टाचारियों को ख़त्म कर देता है...और देश में खुशहाली आ जाती है.....ये तो हमें ही करना होगा...छोटे पैमाने पर ही सही....पर कदम तो उठाने ही होंगे.....

आज ही हमें खुद से वादा करना होगा कि कम से कम हम भ्रष्टाचार में शामिल नहीं होंगे....अपनी तरफ से हमसे जितना हो सकेगा हम भ्रष्टाचार को रोकने का उतना प्रयास जरूर करेंगे....किसी और को सुधारने से कहीं ज्यादा आसान है,स्वयं को सुधारना......कहा गया है...हम सुधरेंगे,युग सुधरेगा....

हर बुराई को हम आम जनता अपने छोटे-छोटे प्रयासों से दूर कर सकते हैं,ऐसा पहले कभी....सोचा था....

Thursday, April 15, 2010

एक गंभीर मुद्दा

कल अपनी सहेली के घर गयी....हम आपस में बातें कर रहे थे...हमारे हाथ से एक पेन गिर गया....उसकी मम्मी घबराकर दौड़ती हुई आई...."क्या हुआ...?...........क्या गिरा......?......चोट तो नहीं लगी...?
"नहीं...आंटी सिर्फ एक पेन ही तो गिरा है...."
आंटी बार-बार आतीं कभी चाय पूछती....कभी नाश्ता.......कभी हम ठीक हैं या नहीं ये देखने आ जाती.....

घर वापस आई....तो शायद आंटी को साथ दिमाग में ही ले आई थी............मैं सोचने लगी की वो ऐसा क्यूँ कर रहीं थी...?
अक्सर देखने में आता है...कि माता-पिता या तो बच्चों पर ज़रूरत से ज्यादा ही ध्यान देते हैं या फिर देते ही नहीं.....कुछ ४० फीसदी ही ऐसे होंगे (मेरी नज़र में) जो बच्चों का उतना ही ध्यान रखते हैं,जितना बच्चों के लिए सही हो.....

माता-पिता का ये ओवर पोजेसिव होना कभी-कभी बच्चों के आत्मविश्वास को डिगा देता है....बच्चे अपने माता-पिता पर इतने निर्भर हो जाते हैं की उन्हें बाहर के लोगों से मिलने में एक अजीब सी झिझक महसूस होने लगती है....ऐसे बच्चों को कई बार उनके उन दोस्तों की जिंदगी ज्यादा अच्छी लगती है...जिनके माता-पिता उनकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं देते.......इसके विपरीत जिन बच्चों के माता-पिता उन पर ध्यान नहीं देते...वे अपने उन दोस्तों सी जिंदगी चाहते हैं...जिनके माता-पिता उनकी हर छोटी -बड़ी चीजों का ध्यान रखते हैं.....बच्चे कई बार माता-पिता की ज्यादा देखभाल से टेंशन में आ जाते हैं....तो कभी बिलकुल ध्यान न देने के कारण...

मेरी एक सहेली थी...अनीता......वो चाहे कितना भी अच्छा काम क्यूँ न कर ले उसके घर में कभी उसकी तारीफ नहीं होती थी........जबकि मेरी एक दूसरी सहेली मीना के साथ बिलकुल उल्टा था.... वो अगर खुद पानी लेकर पी ले तो भी उसकी तारीफ दिन भर होती थी........मीना शुरुवात में अपनी तारीफ से खुश होती थी...लेकिन बाद में उसे एक आसान  से काम के लिए तारीफें नहीं सुहाती.....इसलिए उसे अनीता का परिवार अच्छा लगता....लेकिन तारीफों के लिए तरसती अनीता को मीना का परिवार अच्छा लगता.........

कई माता-पिता का बच्चों पर इतना दबाव है कि बच्चा अपनी असफलताओं का सामना करने से पहले ही मौत को गले लगा लेता है...आये दिन न्यूज़ में बच्चों की आत्महत्या की ख़बरें आती रहती हैं.....कुछ माता-पिता अपने बच्चों को स्टार बनाने के सपने बचपन से ही देखने लगते हैं.....पिछले दिनों एक डांस रियलिटी शो के ऑडिशन में कई ३-५ साल की बच्चियों ने छोटे कपडे पहनकर आयटम डांस किये......कुछ शो में भले ही इसे बढ़ावा न दिया गया...लेकिन माता-पिता ने अपने बच्चे को ऐसा करने तो दिया न.....ऐसा करते हुए उन्हें अपने बच्चे की मासूमियत छीनने की ग्लानी नहीं हुई......

ऐसी न जाने कितनी ही बातें हैं;ये विषय इतना छोटा नहीं की इसे किसी एक ब्लॉग की पोस्ट में समां लिया जाये...ये एक बहुत ही विस्तृत मुद्दा है.......शायद कुछ माता-पिता को मेरी ये बातें बुरी लगें....तो वो एक बार स्वयं को केवल उपरोक्त ही नहीं हर संभावित मुद्दों पर जांच लें कि वे ऐसे माता-पिता की श्रेंणी में आते हैं या नहीं....अगर नहीं आते तो बुरा मानने की कोई बात ही नहीं....लेकिन आते हैं'तो बुरा मानने का कोई अधिकार मैं उन्हें नहीं देती........

कुछ दिनों पहले न्यूज़ में देखा.....भगवान् का आशीर्वाद दिलाने के लिए माता-पिता नवजात बच्चों के ऊपर खौलती हुई खीर डलवाने को भी तैयार थे,कभी बच्चों को छत फेंका जाता है,कभी लात से रौंदा जाता है....जो दृश्य हम टी.वी. पर देख नहीं पा रहे थे....वे उनके माता-पिता कैसे देखते है.....बल्कि सिर्फ देखते ही नहीं ऐसा करने के लिए रजामंदी भी देते हैं...कोई भी माँ अपने बच्चों को ऐसे ज़ुल्म सहने के लिए सहर्ष दे देगी....सोचा था...

Tuesday, April 6, 2010

हमारी पहचान कहाँ है...?

आज वोटर आई.डी. के विषय में पूछताछ के लिए कुछ लोग आये....उनका पहला सवाल था,
"ये आपका अपना घर है या किराये का?.....
"किराये का...."
"ठीक है...कोई बात नहीं..."
"....लेकिन आप किस लिए पूछ रहे हैं॥?"
"वो वोटर आई.डी.के लिए......"
"तो जिनका अपना घर नहीं है...वो कैसे वोट देंगे...?"
...आपका अपना घर जहां है..आप वहीँ वोट दे सकते हैं....जवाब मिला...
"लेकिन हम तो पिछले कई सालों से यहाँ रह रहे हैं....तो हम वहाँ वोट देने कैसे जाएँ..."
"....वो तो नहीं पता..लेकिन आपका जहां लिस्ट में नाम होगा आप वहीँ वोट दे सकते हैं..."इस जवाब के साथ वो तो अपना पल्ला झाड़कर चल दिए...और हमारे मन में देश की स्थिति को लेकर कई सवाल हिलोरे लेने लगे....

सोचने कि बात है...(कुछ भी करने से पहले सोचना तो पड़ेगा ही...).....देश में करीब ४० फीसदी लोग तो ऐसे हैं,जिनके पास खुद का मकान होगा ही नहीं....वैसे भी जहां खाने-पीने की चीजें इतनी महंगी हो रही है..वहाँ कोई दाल-रोटी खा रहा है तो उसके जितना अमीर कोई नहीं....ऐसे में जिन्होंने भी पिछले साल घर बनाने या खरीदने के सपने देखे होंगे....वे अपने सपनों से कुछ दूर तो हो ही गए हैं...अब कोई घर न खरीद पाए और किराये के घर में रहे...तो ऐसा तो नहीं कहा जा सकता की वो भारत का नागरिक नहीं है.....या अगर उसका घर किसी और शहर में है भी...तो उसे चुनाव के दिन वोट करने के लिए उसके शहर वापस जाना पड़े....

सबसे बड़ी बात तो ये है कि इस तरह से क्या हम भारत की जनसँख्या का सही आंकड़ा निकाल पाएंगे...?...और अगर ये आंकड़े ही गलत हुए तो इस पर आधारित अन्य आंकड़े कहाँ तक सही होंगे...?......एक आलिशान बंगले में रहने वाला और फूटपाथ में सोने वाला दोनों ही संविधान की नज़र में सामान है..दोनों को ही सामान अधिकार प्राप्त हैं....ये अलग बात है की इन्हें भ्रष्ट समाज में सामान अधिकार नहीं मिल पाते.....लोग फूटपाथ पर सोने वालों को महंगी गाड़ियों के नीचे दबाकर भी बच जाते हैं...........लेकिन हम इनसे इनकी राष्ट्रीयता का अधिकार नहीं छीन सकते....जब हमें किराये के घर में रहने के कारण वोटर लिस्ट में शामिल नहीं किया जा रहा है.....तो जिनके पास सर छुपाने की जगह नहीं है....उनसे कितने अधिकार छीने जा रहे होंगे....इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता...

देश का एक महत्वपूर्ण काम "जनगणना" ही जब इस तरह से हो रहा है....तो बाकी वादों और दावों का खोखलापन हम टटोल सकते हैं....अपना घर न होने के कारण हमें हमारे मतदान के अधिकार से वंचित रहना होगा....सोचा ना था....

Sunday, March 28, 2010

डार्लिंगजी :पुस्तक समीक्षा

नर्गिस और सुनील दत्त की जोड़ी हमेशा हमारे लिए एक आयडियल जोड़ी रही है...लेकिन उनके मिलने की कहानी भी किसी फ़िल्मी कहानी से कम पेंचीदा नहीं है....जहाँ एक ओर बचपन से अपनी माँ के द्वारा नर्गिस सिनेमा-जगत में आ चुकी थी.....वहीँ सुनील दत्त..जिनका नाम बलराज दत्त हुआ करता था....अपने पिता की मृत्यु के बाद से ही माँ और छोटे भाई-बहन की जिम्मेदारियां सँभालने में लगे थे....उन्होंने बंटवारे की पीड़ा भी झेली....क्लर्क की नौकरी के बाद रेडियो की नौकरी और फिर फ़िल्मी सफ़र की शुरुवात (जिसमे भी कई बाधाएँ आती रही)...इतनी आसान नहीं रहीं...लेकिन उसका कुछ अंदाज़ा "किश्वर देसा" की इस पुस्तक "डार्लिंगजी" से लगाया जा सकता है.......

जहां एक ओर नर्गिस एक मशहूर अभिनेत्री बन चुकी थीं...वहीँ सुनील का फिल्म-जगत में कोई नाम न था...नर्गिस को राज कपूर भा गए...और उन्होंने बिना किसी की परवाह किये..राज के साथ चलने का फैसला किया....राज पहले से शादीशुदा थे...लेकिन फिर भी नर्गिस उनके आकर्षण में बंधती चली गयी...नर्गिस ने राजकपूर के साथ कई फिल्मों में काम किया..ओर एक वक्त ऐसा आया जब वो राज के साथ ही काम करती थीं...उस समय वे केवल राज की बात ही मानती थी...राज ने नर्गिस को कई फिल्मों में काम करने से मना किया...इनमे से एक थी...मुगल--आज़म...

"मुग़ल--आज़म के समय नर्गिस एक बार फिर राजकपूर की इच्छाओं के नीचे दब गयी...........पहले,आसिफ ने इस फिल्म के लिए चन्द्रमोहन और नर्गिस को साइन किया था...नर्गिस का वही किरदार था जो बाद में मधुबाला ने किया था.....चन्द्रमोहन दस रील बनने के बाद ही चल बसे फिर आसिफ ने दिलीप कुमार और नर्गिस के साथ दुबारा शूटिंग की.पर राजकपूर ने कहा कि नर्गिस उस फिल्म में काम नहीं करेगी

इसी तरह राज कपूर की कामयाबी के पीछे नर्गिस का बहुत बड़ा हांथ रहा....

"...आवारा'से 'आह' और 'श्री ४२० 'तक के रोल छोटे होते चले गए बेशक वो राजकपूर की चाहत थी,पर उसकी कामयाबी बढती गयी और नर्गिस की क़द्र कम होती गयी."

"'बरसात','आवारा','श्री ४२०'.लगातार तीन हिट देने से राज कपूर निर्माता,निर्देशक और अभिनेता के रूप में छा गया और कोई भी उसके किसी भी किरदार में गलती निकाल सका.अगर उसे शुरुवात में नर्गिस की जरुरत थी,उसे अब यक़ीनन उसकी ज़रूरत थी.वह एक सितारा बन चूका था,नर्गिस से कहीं बड़ा स्टार ।"

इस तरह की नर्गिस की ज़िन्दगी से जुडी बातों के साथ-साथ नर्गिस और सुनील दत्त के जीवन की कई बातों को इस किताब में शामिल किया गया है.....जब सुनील दत्त ने "मदर इंडिया" की शूटिंग के दौरान अपनी जान पर खेलकर नर्गिस की जान बचाई.....इससे उनकी ज़िन्दगी ने एक नया मोड़ लिया....अपने इलाज के वक्त नर्गिस और सुनील दत्त करीब आ गए ओर उन्होंने शादी का फैसला कर लिया....नर्गिस ने सुनील दत्त से अपने बारे में खुलकर सारी बातें कीं....

"उसने कहा कि अपनी ज़िन्दगी की एक-एक बात इस तरह बताते हुए उसे कोई शर्म नहीं थी,और उसे किसी भी बात की चिंता नहीं थी,क्यूंकि वह जानती थी..'मुझे रोने के लिए सुनील के कंधे हमेशा मिलेंगे-और मैं यह भी जानती हूँ कि उसके कपडे मेरे आंसू सोख लेंगे कि लोगों की हंसी या मज़ाक बनने के लिए छोड़ दिए जायेंगे..."

आपस में इतना प्यार और मान-सम्मान होते हुए भी उन्होंने कई सालों तक अपने प्यार को छुपाए रखा...इसके कई कारण थे...एक तो वो 'मदर इंडिया' में माँ-बेटे की भूमिका में थे...ऐसे में जनता को उनका ऐसा रिश्ता पसंद न आता....दूसरा सुनील दत्त अभी इतने बड़े कलाकार नहीं थे...उन पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता ..कि वो नर्गिस को अपनी सफलता की सीढ़ी बनाना चाहते हैं...वहीँ नर्गिस भी नहीं चाहती थी कि राजकपूर से रिश्ता टूटने के तुरंत बाद ही उनका नाम किसी और के साथ जुड़े,इससे उनकी छवि पर असर पड़ता..इसके अलावा इसी तरह के और भी कई कारण थे..जो इस पुस्तक में बताये गए हैं...सो उन दोनों को न चाह कर भी एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी पड़ती थी...वे आपस में पत्र लिखा करते थे जिसमे वे अपना नाम पिया और हे देयर लिखते थे......ताकि किसी को उनके रिश्ते के बारे में पता न चले..........

रिश्तों के इस लम्बे दौर में उनके सामने कई मुश्किलें भी आई......जिनका इस पुस्तक में उल्लेख है...इसे सुनी-सुनाई बातें नहीं कहा जा सकता क्यूंकि इसमें उनके पत्रों को शामिल किया गया है,इस पुस्तक में सुनील दत्त और नर्गिस के प्यार और समर्पण को जानने का मौका मिलता है...इसमें नर्गिस की ज़िन्दगी में मिसेज नर्गिस दत्त बनने के बाद आये बदलाव को भी बताया गया है...उनके आखरी पलों को भी बड़ी बारीकी से शामिल किया गया जो बहुत ही मार्मिक हैं.....उनके बच्चों को भी इसमें शामिल किया गया है...नर्गिस के एक अभिनेत्री,एक बुआ,एक प्रेमिका,एक पत्नी,एक माँ,एक भाभी और एक समाज सेविका...इस तरह के उनके कई रूपों को इसमें शामिल किया गया है...साथ ही सुनील दत्त के जीवन को भी बखूबी उजागर किया गया है.....

इस पुस्तक से काफी हदतक फ़िल्मी दुनिया की सच्चाई से रूबरू होने का मौका मिलता है...हम सभी फ़िल्मी सितारों से इस हद तक प्रभावित रहते हैं कि उनकी निजी ज़िन्दगी में क्या हो रहा है इसकी उत्सुकता बनी रहती है...और हमारी इसी उत्सुकता को पूरी करने के लिए रिपोर्टर्स और मीडिया उन पर नज़र रखते हैं......इससे उनका जीवन कितना मुश्किल हो जाता है..वो अपनी ज़िन्दगी आज़ादी से जी ही नहीं पाते..कहीं न कहीं ये सवाल अपने आप से पूछने का मन करता है कि..क्या हमें उन्हें उनकी ज़िन्दगी आज़ादी से नहीं जीने देना चाहिए?

उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की हमारी चाह उनकी आज़ादी छीन लेती है...उन्हें अपने स्टार होने की ये एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है..फ़िल्मी दुनिया के चकाचौंध में चमकने वाले ये सितारे अपनी ज़िन्दगी आज़ादी से जी नहीं पाते और इसका कारण हम उनके चाहने वाले हैं.....सोचा ना था....

Tuesday, March 16, 2010

गुडी पडवा


गुडी पडवा...चैत्र मास का पहला दिन...जो की हिंदी कैलेंडर के नए साल का पहला दिन है....इसे महाराष्ट्र में नए साल के रूप में मनाया जाता है....इस दिन को शादी,नए काम शुरू करने,गहने और नयी संपत्ति खरीदने के लिए शुभ माना जाता है...गुडी पडवा एक ऐसा त्यौहार है...जिसकी शुरुवात कड़वा खाकर की जाती है...आज के दिन नीम की पत्तियाँ खाई जाती हैं...कहा जाता है...नीम की पत्तियाँ खाने से मन के अन्दर की सारी कडवाहट मिट जाती है....वैसे ये भी माना जाता है कि आज के दिन सुबह खाली पेट ७ कोमल नीम की पत्तियाँ और थोड़ी काली मिर्च खाने से साल भर बुखार नहीं होता॥

आज के दिन गुडी बनाकर उसकी पूजा की जाती है...जिसके लिए एक साडी को पूरी तरह पटली बनाकर एक लोटे में लकड़ी के सहारे खड़ा किया जाता है...इसे अपने घर में आँगन,छत या दरवाजे पर लगा कर पूजा करते हैं..इसमें बताशे की माला चढ़ाई जाती है....और पूजा की जाती है.....महाराष्ट्र में न केवल घरों में बल्कि दुकानों में भी इस तरह से गुडी बनाकर पूजा की जाती है...आज पूरनपोली भी बनाई जाती है...

मेरी और से सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं....आज नवरात्री का पहला दिन भी है....आज के दिन महाराष्ट्रियन त्यौहार के बारे में कुछ ज्यादा लिखने की चेष्टा की है...जो भी देखा वैसा ही लिखा.....कोई गलती हो गयी हो तो माफ़ करने के साथ ही सुधार भी करें....वैसे किसी की भावनाओं को ठेस पहुचने के बारे में....सोचा ना था....


Friday, March 12, 2010

द टाइम ट्रेवलर्स वाइफ:पुस्तक समीक्षा

दो दिन पहले ही ''द टाइम ट्रेवलर्स वाइफ"पढ़कर पूरी की....शुरुवात में मुझे ये बुक थोड़ी अजीब लगी...लेकिन जब मैं इसे पढ़ती गयी..तो इस अजीब-सी लगने वाली बुक ने मुझे खुद से बाँध लिया...जब भी समय मिलता बस मैं इसे पढने में लग जाती..और धीरे-धीरे मैं न सिर्फ इस बुक से,बल्कि इसके किरदारों से भी जुड़ गयी...अब तक की मेरी पढ़ी हुई सभी पुस्तकों में से ये एक ऐसी बुक है..जो पूरी तरह से काल्पनिक है....लेकिन फिर भी ये मुझे बांधे रखने में सफल हुई....

इस बुक की सबसे बड़ी ख़ासियत है...इसके किरदार..हेनरी और क्लेअर...जो की एक दूसरे से पहली बार तब मिले जब हेनरी ३६ साल का और क्लेयर ६ साल की थी...और दोनों ने शादी की तब हेनरी ३० साल का और क्लेयर २२ साल की थी...ये अजीब जरूर लगता है...लेकिन ये ही सच है...इसका कारण है हेनरी की एक अनोखी बीमारी...जिसके कारण हेनरी अचानक ही अपने बीते समय या भविष्य में चला जाता है...इस पर हेनरी का कोई बस नहीं चलता....

वहीँ दूसरी ख़ासियत है...इसका लेखन....लेखक ने बहुत ही ख़ूबसूरती और प्यार से इस बुक को लिखा है...ये बात बुक को पढ़ते हुए ज़ाहिर होती है...हर पैराग्राफ बहुत ही बारीकी से लिखा जान पड़ता है...हर परिस्थिति,हर भाव,आसपास की जानकारी,मौसम का उल्लेख...इतना उम्दा है की पाठक को ऐसा लगता है...जैसे वो कोई बुक नहीं पढ़ रहा,बल्कि उस बुक का ही एक हिस्सा हो...यही कारण है कि,पाठक को इस बुक और उसके किरदारों से लगाव हो जाता है.....

इस बुक को पढना उन लोगों के लिए बहुत ही अच्छा हो सकता है..जो खुद भी बुक लिखना चाहते हों...इससे पाठकों को बांधकर रखने का गुर सीखा जा सकता है..और प्रभावशाली लेखन भी.....

जब तक मैं इस बुक को पढ़ती रही मैंने खुद को एक रोमांचक यात्रा में पाया....मैंने कहीं पढ़ा था.."एक अच्छी बुक वो होती है...जिसे पूरी करने के बाद आपको ऐसा लगे,जैसे आप अपने किसी दोस्त से बिछड़ गए हों..".....कुछ दिनों पहले तक मेरे लिए ये किसी की कही हुई बात थी...लेकिन आज ये मेरा अनुभव है....किसी बुक और उसके किरदारों से यूँ जुडाव हो जायेगा.....सोचा ना था....

Friday, February 26, 2010

दुआ की कीमत

फरवरी की शुरुवात में ही हम अजमे गए...वैसे हमारा १० दिनों का लम्बा प्लान था.....अजमेर पहुँचकर अपने भाई के दोस्त के घर पर फ्रेश हुए....फिर मशहूरअजमेर शरीफ (दरगाह) गए.....वहां ३ बजे पहुँचने पर पता चला कि अन्दर जाने के लिए ४ बजे तक का इंतजार करना होगा...सो हमने उस एक घंटे को आसपास की दुकाने देखने और छोटी देग और बड़ी देग देखने में बिताया....बाद में हम सभी ने मिलकर दरगाह में चादर चढ़ाई और दर्शन किये....यहाँ मुझे केवल एक ही बात खली....वो ये की यहाँ जो खुदा के खिदमतगार खड़े होते हैं...उन्हें वहां दर्शन के लिए आये लोगों से कदम-कदम पर पैसे मांगते हुए देखा जा सकता है....जिन्हें यदि मना किया जाये या टाला जाये...तो दो पल पहले दुआ देती उनकी जुबान लोगों को बददुआ देने में ज़रा भी देर नहीं करती.......और उनकी बददुआये उनकी दुआओं की तुलना में कुछ ज्यादा दिल से निकली लगती हैं.....

दरगाह के पास खड़े लोग आपकी श्रद्धा -भावना को चादर पर चढ़े रुपयों के हिसाब से तौलते हैं.....अगर आपको वे एक धागा भी हाँथ में बांधते हैं,तो उससे पहले वो आपसे पैसे मांगते हैं......यही हाल अजमेर के तारागढ़ की मज़ार का था....यहाँ तो अन्दर घुसने से पहले ही दरवाजे पर पैसे चढाने को कहा जाता है........अन्दर जाकर दर्शन करने पर भी पैसे की मांग ज़ारी रहती है.............

ऐसी किसी दरगाह या मज़ार पर जाकर इंसान कुछ पलों के लिए खुद को परमेश्वर के करीब महसूस करना चाहता है.......वो चाहता है कि कुछ पल अपने दुख-दर्द को भुलाकर शांति का अनुभव करे,लेकिन ऐसा करना अब कुछ मुश्किल सा होता जा रहा है.........ऐसे इंसान जिन्होंने शायद अपनी ज़िन्दगी में कभी पैसों को इतना महत्व नहीं दिया होगा और इसी वजह से शायद उन्हें इतना बड़ा ओहदा मिला...उनकी मजारें यहाँ बनी हुई हैं,जिन पर लाखों लोग आकर सजदा करते हैं...लेकिन आज इनकी मजारों को ही व्यवसाय का जरिया बनाया जा रहा है......इन्होने कभी ऐसा.....सोचा ना था....

Wednesday, January 13, 2010

अवतार


अवतार,ये शब्द हमारे जेहन में कई काल्पनिक चित्रों को एक साथ लाकर खड़ा करता है.....काल्पनिक इसलिए लिखा;क्यूंकि जब भी मैं अपने धार्मिक ग्रंथों में उल्लेखित अवतारों के बारे में सुनती या पढ़ती हूँ..तो मन में वास्तविकता और काल्पनिकता का एक द्वंद्व शुरू हो जाता है.........हम सभी कहीं न कहीं इन पर विश्वास भी करते हैं....लेकिन मेरा मन इन पर विश्वास करता है या नहीं...ये कहना मेरे लिए भी मुश्किल है....शायद मैं इन पर विश्वास करती हूँ.....लेकिन पूरी तरह से नहीं...

खैर बात यहाँ अपने धार्मिक ग्रंथों के अवतार की नहीं..."अवतार" फिल्म की कर रही हूँ......फिल्म पूरी तरह से काल्पनिक है.........फिर भी उसमे दिखाए गए दृश्य पूरी तरह से दर्शकों को बांध लेते है...जिस तरह से सभी जीवों और पेड़-पौधों का आपस में संबंध दिखाया गया है.....वो कहीं न कहीं सोचने पर मजबूर करता है कि हम भी तो पेड़-पौधों और जीवों से इस तरह का संबंध रखते है....ये सच है कि हमारा संबंध इतना करीबी नहीं है...लेकिन फिर भी है तो....

फिल्म में दिखाई गई जगह पर जाने और उस जीवन को जीने का मन होने लगता है...लेकिन कुछ ही पलों में जब उस प्राकृतिक दृश्यों को तबाह होते देखना पड़ता है....तो लगता है कि हम जो कुछ धीरे-धीरे प्रकृति के साथ कर रहे है....उसके एक बड़े रूप का सामना करना पड़ रहा है....इस तरह से उस खूबसूरत प्राकृतिक दृश्य को तबाह होते देख मन में एक अजीब सी टीस उठती है.....थियेटर से निकलते वक़्त मैंने अपने मन में प्रकृति के प्रति एक अनोखा सा जुडाव महसूस किया....

इस तरह से कोई फिल्म मुझे प्रकृति से इस तरह से जोड़ देगी....सोचा ना था....