Monday, October 17, 2011

भारत के राज्य और मोहल्ले

कई दिनों से न्यूज़ में ये सुनने में आ रहा है कि अलग तेलंगाना राज्य की मांग हो रही है...कुछ लोग अलग खालसा भी मांग रहे हैं...कुछ १० सालों पहले ही मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ निकला....कुछ दिनों से बुंदेलखंड भी अलग बनाने की मांग चल ही रही है....ये सब देखकर ऐसा लग रहा है कि वो दिन दूर नहीं जब पूरे भारत में राज्यों की गिनती इतनी बढ़ जाएगी की बच्चों की पुस्तकों में इसके लिए एक नया पाठ शुरू करना होगा और उसे भी हर साल नए सिरे से लिखना होगा..और बच्चों के लिए ये बताना मुश्किल हो जायेगा कि सबसे नया राज्य कौन सा है...?और बात अगर यहाँ भी नहीं सुधरी तो कुछ दिनों में लोग अलग मुहल्लों की मांग शुरू कर देंगे और हर राज्य को मुहल्लों में बाँट दिया जायेगा...और हर मोहल्ले में चुनाव होंगे...और फिर बच्चों को इसकी जानकारी देने के लिए एक नयी पुस्तक छपवाई जाएगी..."भारत के राज्य और मोहल्ले"....बच्चों को प्रश्न पूछे जायेंगे,"शर्माजी के मोहल्ले के पास बने नए मोहल्ले का नाम क्या है...?" या "भारत में कितने राज्य और राज्यशासित मुहल्ले हैं...?".....कौन बनेगा करोड़पति में १ करोड़ का सवाल होगा..."भारत का ३४३ वाँ मोहल्ला कौन-सा है? शर्माजी का मुहल्ला,रमण जी का मुहल्ला,शास्त्री जी का मुहल्ला या प्रजापतिजी का मुहल्ला...

और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को बताएँगे कि पहले ऐसे मुहल्ले नहीं होते थे....राज्य हुआ करते थे....फिर धीरे-धीरे लोगों के सर पर फितूर सवार होता गया और वो भारत में जितनी जातियां थीं उनके नाम से एक-एक राज्य बना लिए...लेकिन फिर भी उनका फितूर कुछ दिनों के लिए ही शांत हुआ..और जब फिर सर पर फितूर सवार हुआ तो उन्होंने जातियों की उपजातियों के नाम पर मोहल्ले बना लिए...कुछ ने तो बाद में अलग-अलग घर की भी मांग की थी...लेकिन वो अब तक मानी नहीं गयी...वरना "भारत के राज्य और मोहल्ले" को स्कूल ले जाना संभव नहीं होता....वैसे भी इन राज्यों और मुहल्लों को बनाने के लिए इतनी क्रांति हुई की अब बच्चों को भारत का इतिहास भी ज़रा ज्यादा पढना पड़ता है...

बचपन में पढ़ा था कि पैदावार में कमी का एक मुख्य कारण किसान के परिवार का बंटवारा भी है...क्यूंकि इससे किसान की ज़मीन छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाते हैं...मृदा का कटाव भी होता है...और पैदावार पर असर होता है...जब आज भारत रूपी किसान के बेटे बंटवारे पर उतर आये हैं तो कल विकास रूपी पैदावार भी कम होगी...इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए...

किसी दिन बढती आबादी से भी बड़ी चिंताजनक बात राज्यों की बढती संख्या होगी...सोचा ना था....


Monday, May 30, 2011

मेरे सपनों की दुनिया- विविध भारती

मुझे याद भी नहीं कि कब से मैं विविध भारती सुनती चली आई हूँ..शायद बहुत छोटी थी तभी ये आदत लग गई थी...और जब से विविध भारती और उसके प्रोग्राम के नाम याद रहने लगे...तब से ही कुछ नाम भी जाने पहचाने लगने लगे...ऐसे ही जाने पहचाने दो नाम थे...कमल शर्मा और युनुस खान...

शायद ये विविध भारती का प्यार ही था जो मुझे वोइसिंग की दुनिया से लगाव हुआ और मैं वोइस आर्टिस्ट भी बन गई..और १६ मई को मुझे एक सुनहरा मौका मिला...विविध भारती जाने का...बस सुबह से ही अपने सपनों की दुनिया में जाने की ख़ुशी संभाले नहीं संभल रही थी...मैं अपने बड़े भाई के साथ जाने वाली थी...उनकी पहचान युनुस भाई (हाँ...युनुस जी को अब तो इस नाम से पुकारा ही जा सकता है..) से इन्टरनेट पर हुई थी....घर से विविध भारती कुछ ४५ मिनट की दूरी पर है..जब घर से निकले तो रास्ते में ही हल्की बूंदाबांदी ने मानो मेरे सपने के सच होने की ख़ुशी में मेरे मन के भावों को बयां किया...ऑटो से हाथ बाहर निकालकर बूंदों को हाथ में लेकर मैंने भी ईश्वर का धन्यवाद किया...

हम विविध भारती पहुंचे...युनुस भाई से पहली बार मिलकर भी कोई औपचारिकता की बातें नहीं हुईं वो कुछ इस तरह से मिले जैसे कोई पुराना दोस्त अचानक मिल जाता है और बस अपने दोस्त के ताज़ा हालचाल पूछ लेता है...कोई औपचारिकता नहीं...?...आश्चर्य तो हुआ...पर जब उनमे अपनी आवाज़ से लोगों को अपना बनाने की ताकत है तो फिर सामने बैठे व्यक्तियों की तो बात ही क्या...

जब हम पहुंचे तब विविध भारती में एक प्रोग्राम लाइव चल रहा था...सखी सहेली...ये प्रोग्राम मेरा बहुत ही फेवरेट हुआ करता था...ऐसा लगता था मानो किसी सहेली से ही बातें हो रही हों..

खैर उनसे बातें चल ही रही थी की एक शख्स उनसे मिलने पहुंचे और युनुस भाई ने उनका परिचय करवाया कि, "ये कमल जी हैं..." कमलजी भी उन बातों में शामिल हो गए...हंसी- मज़ाक का कुछ ऐसा दौर चला कि ऐसा लगा ही नहीं की हम यहाँ पहली बार आये हैं और इन सभी से पहली बार मिले हैं....(वैसे रेडिओ के जरिये हम तो कई बार इनसे मिल चुके थे...)...कमल जी ने मेरा मार्गदर्शन भी किया कि मुझे विविध भारती के लिए किन- किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए...उनसे बातें करके अच्छा लगा....

वैसे सच कहूँ तो ज्यादातर बातें युनुस भाई, कमलजी और मेरे भाई आलोक भैया के बीच ही चल रही थी....मैं तो यहाँ भी एक श्रोता की भूमिका में ही थी....लेकिन सुनकर भी कितना कुछ सीखा जा सकता है ये बातें उस दिन मुझे समझ में आई....दरअसल जब बातें ही इतनी खुबसूरत चल रही हों तो उन्हें बीच में रोकना तो सब से बड़ा गुनाह है....और उनको देखकर कुछ ऐसा लग रहा था..जैसे वो कोई बिछड़े दोस्त हों और कई अरसों बाद मिल गए हों...और जितनी बातें एक-दूसरे से कर सकें...कर लेना चाहते हों...मुझे याद है कुछ २-३ घंटे हमने वहां बिताये...फिर भी लग रहा था जैसे अभी तो आये हैं...

वो दिन कुछ अनोखा था....एक तोहफे की तरह...जो मुझे अचानक से मिल गया था....इस तरह से कभी विविध भारती में जाकर युनुस भाई और कमल जी से मिलने का मौका मिलेगा...सोचा न था....
.

Friday, April 8, 2011

ज़िन्दगी की कहानी

कहानी...अपनी दादी- नानी से बचपन में सुनी है,हम सबने...राजा-रानी की,अच्छे- बुरे लोगों की, सच्चाई की जीत की,मेहनत के फल की.....बचपन से ही इन कहानियों का असर हमारे दिलोदिमाग में होने लगता है और इन कहानियों के साथ ही शुरू होता है...हमारी कहानी का सफ़र...हाँ, सोचकर देखो क्या हम सबकी ज़िन्दगी में एक कहानी नहीं है..कभी अच्छे लोग मिलते हैं...तो कभी बुरे...जैसे कहानी के कैरेक्टर...कभी हम परेशानी में फंस जाते हैं और कोई मदद नहीं मिलती तो हम बिलकुल वैसे ही परेशान हो जाते हैं जैसे कहानी में परी के पंख बंध जाने के बाद वो हो जाती है...

बस बचपन में कहानी ख़त्म होते-होते हमारी आँखें नींद से बोझिल होकर बंद हो जाया करती थी...लेकिन ज़िन्दगी की कहानी हमारी आँखों के बंद होने के बाद ही ख़त्म होगी..

ये ज़िन्दगी की कहानी बचपन में सुनी कहानियों से भी कठिन होगी...सोचा ना था....

Monday, April 4, 2011

एक नई सुबह

सूरज की पहली किरण और पंछियों के शोर से ये आभास हुआ कि सबेरा हो गया...वैसे खिड़की से छनकर आती किरणें सीधे मेरे मुँह पर पड़ रही थीं..लेकिन मुझे कोई परेशानी नहीं हो रही थी..बल्कि ये मुझे एक सुकून दे रहीं थीं..ऐसा लग रहा था मानो ये किरणें थककर निढाल हो चुके मेरे शरीर को अपनी ऊष्मा से ऊर्जा दे रही हो...सुबह इतनी कोमल लगने वाली किरणें दोपहर में कैसा भीषण रूप धर लेती है...जैसे बचपन में कोमल मन वाले हम बड़े होते-होते कठोर हो जाते हैं... लेकिन शाम को यही किरणें अपनी सुबह की चंचलता और दोपहर की कठोरता को छोड़ बिलकुल नया रूप धर लेती है...शांत लगती है..जैसे कोई योगी त़प में मग्न हो और उसे मोक्ष मिलने वाला हो..कितना अनोखा और सुखद है ये विचार॥

यही सब सोचते हुए जब घडी पर नज़र पड़ी तो ८ बजा देख मैं उछल कर ज़मीन पर आई और जल्दी से नहाकर नाश्ता करके काम पर जाने की तैयारी करने लगी...इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में ऐसे खुशनुमा विचारों के लिए भी जगह नहीं रह गई है....

ज़िन्दगी की दौड़ भाग में सुबह की खूबसूरती को निहारने का मौका भी न मिलेगा...सोचा ना था....

Wednesday, January 12, 2011

तरकश-जावेद अख्तर


अपनी ट्रेनिंग के सिलसिले में हिंदी में आने वाले उर्दु लफ़्जों के सही उच्चारण के लिए मैंने कुछ ऎसी पुस्तकों को पढ़ने का सोचा..जिसमे हिंदी के साथ उर्दु लफ्ज़ शामिल हों और वो बहुत ज्यादा कठिन भी न हों...मेरे भाई ने मुझे जावेद अख्तर की तरकश पढ़ने की सलाह दी...

तरकश....जावेद साहब की बेहतरीन रचनाओं का संग्रह है..उनकी कई गजलों के साथ- साथ बेहतरीन शेर और कई रचनाएँ भी हैं...कुछ जो उनके जीवन को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती हैं...वैसे तो अगर उस किताब के बारे में या उन रचनाओं के बारे में कुछ लिखना चाहूँ तो शायद किसी एक पंक्ति को चुनना मुश्किल होगा फिर भी अपने मन को समझा कर मैं कुछ यहाँ शामिल कर रही हूँ...

उनके कुछ शेर जो मुझ जैसी शेरों-शायरी पसंद न करने वाली को भी पसंद आ गए :
ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए....

सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है...

अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है
ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है...

रात सर पर है और सफ़र बाकी
हमको चलना ज़रा सवेरे था....

उनकी कुछ रचनाएँ तो बहुत ही उम्दा है...जैसे बीमार की एक रात

दर्द बेरहम है जल्लाद है दर्द
दर्द कुछ कहता नहीं
सुनता नहीं
दर्द बस होता है...

उसी तरह

ग़म बिकते हैं की ये पंक्तियाँ कितनी सच्ची मालूम होती हैं,
अपनी महबूबा में अपनी माँ देखे
बिन माँ के लड़कों की फितरत
होती है

ये पंक्तियाँ भी कम खूबसूरत नहीं

तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे
अब मिलते है जब भी फुर्सत होती है....


फीका चाँद की ये पंक्तियाँ

उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे की खातिर था एक टीका चाँद

अब
हम इसके भी टुकड़े कर ले
ढाका रावलपिंडी और दिल्ली का
चाँद

वैसे तो मेरा मन कर रहा है कि मैं सारी रचनाओं, गजलों और शेरों को यहाँ शामिल कर दूँ लेकिन मुझे लगता है कि आप लोग जब उस पुस्तक को लें तो कुछ ज्यादा आप लोगों के लिए वहाँ रहे...कोई इतने बेहतर ढंग से अपने भावों को व्यक्त कर सकता है कि उसकी भावनाएं सीधे पाठकों के दिल तक पहुंचे....सोचा ना था....

Tuesday, January 11, 2011

फल की चिंता

कुछ महीनों से अपनी ट्रेनिंग में यूँ उलझी की...लिखने से ज्यादा समय पढने में जाता है...ज़िन्दगी में आपको क्या करना है इसका निर्णय पहले कर लेना बेहतर होता है या खुद को ज़िन्दगी के हवाले कर देना...नहीं जानती,लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है मैंने खुद को हमेशा ज़िन्दगी के हवाले किया...इससे फायदा ये होता है कि क्या करना है? इस बात की टेंशन नहीं लेनी पड़ती...लेकिन जो मिला है उसे स्वीकार करना भी पड़ता है...काम केवल इतना रह जाता है कि जो मिला है उसे ही सर माथे लगाकर आगे बढ़ने की कोशिश जारी रखनी होती है....और आपने ये काम जितनी अच्छी तरह किया...उतना ही अच्छा फल भी मिलता है...

वैसे भले ही श्री कृष्ण ने गीता में कहा हो कि कर्म किये जाओ फल की चिंता मत करो....हमने कभी इस बात को सीरियसली नहीं लिया...हम तो हमेशा फल की चिंता करके ही कर्म करते हैं...कई बार अपने बड़ों से ही सुनने मिलता है.."आज मेहनत करोगे..तो कल अच्छा काम करोगे और खूब कमाओगे"....मतलब हमारी आज की मेहनत भी कल के फल के बारे में सोच कर ही होती है...और ये फल...काफी महंगे हो गए हैं...चाहे मेहनत के हों या पेड़ों के...महंगाई के ज़माने में हर चीजों की कीमतें बढ़ रहीं हैं ...केवल हमारी मेहनत और भारतीय मुद्रा को छोड़कर...

फिर भी हम किस्मत के पेड़ को मेहनत से सींच रहे हैं...शायद फल मीठे लगें...और हमारी मेहनत भी रंग लाये...बस इस नए साल में तो यही कामना है...इस बढती महंगाई में हमारी मेहनत की कीमत घटेगी....सोचा ना था....